दो पंक्तियाँ इस
बदल पर ...
कभी नजरें नहीं
बदली, कभी मंजर नहीं बदले !
रकीबों के उन
हाथों में, कभी खंजर नहीं बदले !!
जमाना तो बदलता
ही रहा था, पहली फुर्सत में !
तुम्हारे आसूंओ से भी ...मेरे बंज़र नहीं बदले !!
...हरीश ..
मुफलिसी बेचारगी, जब से नुमाया हो गई
मुख़्तसर
सी उम्र थी, वो भी जाया हो गई
रोज ही बढ़ती गई चेहरे पे उनकी शोखिया
और मेरे हिस्से
की उजली धूप साया हो गई
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