"गाँव उसका खो गया "
दर-ब-दर
इतना चला वो,
पाँव उसका सो गया !
हाँ
शहर तो मिल गया पर गाँव उसका खो गया !!
एक
बच्चा दुधमुहां सा,
मां से लग कर रो गया !
दिन
ब दिन खेला वो मिटटी,
रास्ते सा हो गया !!
दौड़ता
था गाँव की,
गलियों मैं वो दिनमान भर !
थक
के सो जाता था छत पे आसमां को तान कर !!
खेत
खलिहानों मैं रच कर स्नेह सा वो बो गया !!
हाँ
शहर तो मिल गया पर गाँव उसका खो गया !!
जब
बढ़ा वो जिस्म में,
घर से चला वो शहर को !
रोजी
रोटी की ललक में... भोगने हर कहर को !!
स्वप्न
मिटटी की ललक के आसुओं से धो गया !
हाँ
शहर तो मिल गया पर गाँव उसका खो गया !!
याद
आती हैं उसे अब,.....
गाँव की अमराइयाँ !
तीज
के वो मेले ठेले ,.......ताल की गहराइयाँ !!
दर्द
की शिद्दत बड़ी तो,....मुह छिपा के रो गया !
हाँ
शहर तो मिल गया पर गाँव उसका खो गया !!
सोचता हैं वो
शहर के ..दम तोड़ते वातावरण में !
क्यों फंसा बैठा
वो खुद को झूठ के छद्मावरण में !!
क्यों न आया लौट
कर वो गाँव से फिर जो गया !
हाँ
शहर तो मिल गया पर गाँव उसका खो गया !!
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