अमृता को याद करते हुए
इमरोज का ख़त जो कभी पोस्ट नहीं हुआ शायद कुछ ऐसा होगा .....
अमृता,
कल तुम्हारे जिस्म से
रात का एक लम्हा
टूट कर
गिर गया था शायद
सुबह ओस से भीगा
सहला गया मुझे
कतरा कतरा
जिस पर लिखा था
एक नाम
बेतहाशा ही
पूरी शिद्दत से
जो मेरा नहीं था
फिर भी हर शाम
ओड़ लेता हूँ में तुम्हें
गुलमोहर की तरह
.
मैं साहिर नहीं
न ही माहिर हूँ
शब्दों से खेलने में
बस खामोश
लफ्जों का हमसफ़र
सुलगते हुए जज्बातों को
एश ट्रे में मसल लेता हूँ
सिगरेट की तरह
अनदेखा कर देता हूँ
तुम्हारी उकताहट को
और अपनी कैफियत को
.
तुम्हारी यादों की सीलन
मेरे पूरे बदन पर हैं
पास होते हुए भी
तुम्हारे सांसों की धूप
पिघला नहीं पाती इसे
मेरे हिस्से में
तुम्हारे होंठों की
गर्माहट नहीं शायद
.
तुम मेरे साथ रहती हो
पर किसी और के साये में
आँखों की कोर
रेतीली सी हो गई हैं
सोख लेती हैं हर नमी
तुम्हारे इत्र की हैं
या तुम्हारे बदन की
खुशबू
महकाती बहुत हैं
सरे शाम ही
कैद रक्खा करो इन्हें
.
सुनो
कंपकपाते लम्हों को
एकतरफा कर दो
मेरे हिस्से की सिसकियाँ
मेरे सरहाने रख दो
किसी शिकश्ता साज़ की तरह
बजने दो
नेपथ्य में कहीं
मैं उतर जाना चाहता हूँ
तुम्हारे अक्स के शीशे में
अनछुए ही
अनकहे ही
.
बस इतना कह दो
इमरोज
ये जिस्म भले न हो
रूह पर मगर
तुम्हारा हक हैं
सिर्फ तुम्हारा
साहिर होना
बाकमाल होगा
पर इमरोज होना भी
बेकमाल नहीं
.
(हरीश भट्ट
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