नमस्कार दोस्तों
(एक सत्य कथा शाश्वत प्रेम और संघर्ष की)
संवेदनहीन होती जिंदगी में भी कभी कभी कुछ ऐसे लोग ऐसे पल मिल जाते हैं जो शिद्दत से याद रह जाते हैं
मुझे याद हैं छोटी सी तकलीफ पर भी कई बार किस्मत और भगवान् को कोसते हैं हम पर वास्तव में दुःख क्या यही हैं ?
चलिए आज में आपको मिलवाता हूँ मैं रितेश और उसकी पत्नी अर्चना से
रितेश 32-34 की उम्र पिता का साया उठ चूका था सर से ओड़िसा के एक छोटे से क़स्बे बेलपहाड़ से रोजगार की खोज में हरिद्वार आ गया और जहाँ में कार्यरत हूँ उसी फेक्ट्री में मशीन ओपरेटर के रूप में कार्य करने लगा सुन्दर सुशील पत्नी और प्यारा सा ९ साल का बेटा हसमुख मिलनसार और व्यवहारिक एक बात और
समाज से परिवार से बगावत कर अर्चना से प्रेम विवाह किया था रितेश ने..जाहिर हैं प्रेम भी..
पर इतना ही परिचय नहीं हैं रितेश का ...
एक परिचय और भी हैं दुःख पीढ़ा और हताशा के बीच साहस धैर्य प्रेम और संघर्ष से भरे 8 साल का परिचय विवाह के एक दो साल बाद से ही रितेश की पत्नी के सर में दर्द रहने लगा था उसके निवारण के लिए डाक्टर्स के द्वारा दिए गए अत्यधिक पेनकिलर ने सर के दर्द से आराम तो दिया पर साईड इफेक्ट के रूप में एक ऐसा दर्द दे दिया जिसकी परिणिति बहुत भयावह थी । बेटे के जन्म होते होते रितेश को पता चला की पत्नी की दोनों किडनी में इन्फेक्शन हो चूका हैं दुधमुहा बेटा, कमजोर आर्थिक स्थिति और अपनों से कई हजार किलोमीटर की दूरी शायद यही वह स्थिति होती हैं जब इंसान परिस्थितियों से टूट जाता हैं और मैंने तो कई ऐसे पति भी देखे हैं जो पत्नी को ही छोड़ देते हैं
लेकिन रितेश नहीं टूटा उसने ठान ली थी की चाहे जो भी हो वह अपनी पत्नी का इलाज करवाएगा
कुछ सम्बन्धियों से कुछ दोस्तों और स्टाफ से कुछ फेक्ट्री की आर्थिक सहायता से वह बीमार पत्नी को छोटे से बेटे को गोद में उठाये बड़े से बड़े हॉस्पिटल तक ले के गया ..हर तीसरे दिन डाइलोसिस ऊपर से रोजगार का दवाब पत्नी का टूटता मनोबल पर उसने हिम्मत नहीं हारी
लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था चार साल पहले अचानक डाक्टर ने वो फैसला सुना दिया जिसकी उम्मीद शायद उसे नहीं थी की किडनी ट्रांसप्लांट करना जरूरी हैं वरना जान का खतरा हैं
आप समझ सकते हैं एक किडनी ट्रांसप्लांट का खर्चा हमारे देश में लाखों में आता हैं और फिर सबसे बड़ा सवाल किडनी कहाँ से आएगी....??
यही वो क्षण हैं जहाँ अपने जीवनसाथी के प्रति प्रेम स्नेह और जिम्मेदारी का एहसास होता हैं.. प्रेम और सप्तपदी के वचन निभाने का क्षण..
यही वो क्षण की जब दुनिया डूबती हुई सी लगती हैं और कोई साथ देने नही आता न परिवार न दोस्त न कोई और तब अपने बेटे के लिए अपने प्यार और अपनी बेहद प्यार करने वाली पत्नी के लिए अपने वैवाहिक जीवन को बचाने के लिए उसने ये फैसला लिया की वह "अपनी किडनी" देगा
और एक महीने के अन्दर रितेश की एक किडनी उसकी पत्नी को लगाई जा चुकी थी
आप सोचते होंगे कितना दर्द और कष्ट सहा होगा कितना संघर्ष किया होगा एक दिन नहीं सालों साल शायद अब सब खत्म ...पर दर्द की शायद इंतहा यहीं तक नहीं थी
१० दिन बाद ही डॉक्टर्स ने रितेश को जो अभी खुद के ओपरेशन के चलते हॉस्पिटल में था बहुत कमजोर और हताश बस इस उम्मीद पे की उसकी पत्नी का जीवन बच जायेगा यह खबर सुनाई की जो किडनी ट्रांसप्लांट की गई हैं उसने भी काम करना बंद कर दिया हैं और उसकी पत्नी की हालत बहुत गंभीर हैं
अँधेरा.. घुप्प अधेरा सा पसर गया था रितेश की आँखों के आगे.. लगा सब व्यर्थ हो गया स्वयं के शरीर से एक अंग तो कम हो ही गया कई लाख रुपये जो लोगों से उधार लिए थे इस ओपरेशन के लिए वो भी व्यर्थ और सबसे बड़ी बात उसका प्यार ...सोचता हूँ ऐसे ही किसी अवसाद का वो क्षण होता होगा जब इंसान आपना जीवन तक समाप्त कर लेता होगा
पर रितेश किसी और ही मिटटी का बना था उसने स्थितियों से पलायन नहीं किया संघर्ष की वो कहानी फिर एक बार शुरू हुई फिर वही हर तीसरे दिन डाइलोसिस फिर हॉस्पिटल के चक्कर फिर ट्रांसप्लांट की तैयारी इस बीच बड़े होते बेटे की जिम्मेदारियां भी..ऐसे ही चार साल और गुजर गए
2018 एक बार फिर रितेश ने कोशिश की एक डोनर भी मिल गया फिर से रुपयों का इन्तेजाम किया गया मुझे याद हैं उसने फोन करके कहा था "सर इस बार कोई कमी नहीं होने दूंगा सब ठीक होगा पूरा विश्वास हैं मुझे ईश्वर पर और अपने प्यार पर" ...
पर ईश्वर उसकी तो वो ही जाने ऐन ओपरेशन वाले दिन किडनी मैच न होने के कारण डाक्टर्स ने ओपरेशन टाल दिया और दो माह बाद की डेट दे दी।
रितेश का फोन आया कहने लगा "कोई नहीं सर दो महीने हैं निकल जायेगे उसके बाद सब ठीक हो जायेगा"
मैं आश्चर्य चकित था उसकी हिम्मत पर.. क्या दे पाया था मैं उसे...सांत्वना के दो शब्द.. बस ..
और फिर वह कयामत का दिन भी आ ही गया
कल रात में खाना खाने बैठा ही था की रितेश का फोन आया मैंने पूछा "इतनी रात ..क्या बात हैं" ...कहने लगा
"वो चली गई सर सुबह ब्लड प्रेशर जो डाउन हुआ तो फिर ऊपर ही नहीं आया"
सुन कर एक झटका सा लगा भावशून्य सा हो गया में हाथ का कौर हाथ में ही रह गया .. कुछ कहते नहीं बना
"सर में अपनी पत्नी को ला रहा हूँ हॉस्पिटल से रास्ते में हूँ ...पत्नी की तरफ से आपको नमस्ते कहना चाहता हूँ आपने बहुत मदद की सर ...." भर्राए गले से रितेश की आवाज आ रही थी और मेरे आंखों के आगे उसका चेहरा
सांत्वना का शब्द शायद छोटा था उसके लिए जिसने इतना सब कुछ सहा हो ..बहुत छोटा
एक बात और रितेश की यह कहानी उन सभी तथाकथित सभ्य लोगों के मुह पर एक तमाचा हैं जो दान दहेज़ के नाम पे अपनी पत्नी को जला देते हैं बीमार होने पर हमेशा के लिए उसके घर छोड़ देते हैं या दूसरा विवाह कर लेते हैं
आज शमशान में खड़ा हूँ, देख रहा हूँ 9 बरस का बेटा अपनी माँ को अग्नि दाह दे रहा हैं ..देख रहा हूँ उस चिता को जलते हुए सोचता हूँ की क्या चिता की आग ही सब कष्टों सब संघर्षों का अंत हैं क्या यह अग्नि मिटा पाएगी उस शाश्वत प्रेम को ....
में इस जिजीविषा इस संघर्ष के जज्बे को प्रणाम करता हूँ
उस प्रेम उस स्नेह बंधन को भी जिसे अंत तक निभाया था रितेश ने ...
(चित्र - रितेश-अर्चना)
हरीश भट्ट
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