कविता एक अनुबंध हैं रचनाकार और पाठक के मध्य और यह तभी कामयाब हैं जब पाठक और कविता एकाकार हो जाएँ ..इसी भाव पर कुछ पंक्तियाँ .....
..सुनो..!!
ये जो तुम,
..पढ़ लेते हो न..
मेरी कविताओं में
""मुझे."".
'अक्षरश'..'अपलक'
..बेसाख्ता ही,
सिलसिलेवार..
'स्नेहसिक्त' हो ..
इतनी शिद्दत से,,
'परिपूर्ण' हो जाता हूँ
अपनी कविताओं
के साथ
..मैं भी
तुम्हारी
संवेदनाओं
और प्रतिक्रियाओं में..!
..'हर्फ़ हर्फ़'...
पूछने लगता हैं
तुम्हारा पता,
...भाव.. उद्वेलित हो ..
अवाक रह जाते हैं,
...शब्द संयोजन..
इतराने लगता हैं
खुद पर,,
मात्राएँ..
गणित भूल जाती हैं
..पंक्ति पंक्ति
हिलोर लेती हैं
....तुम
'कवितामय' लगते हो
और कविता...
...'तुममय' !
....आश्चर्य..
अब...मेरे नाम के बजाय
...तुम्हारे नाम से
पढने लगे हैं
..लोग उसे.. !
...तब
वो 'मेरी' कविता
...'मेरी'..
कहां रह पाती हैं
'तुम्हारी'..
हो जाती हैं..!!!
....हरीश भट्ट ......
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