एक पुरानी तरही ग़ज़ल...
बत्तियां गुल हो चुकी, सड़कें पुरानी हो गईं!
अब तो रातें इस शहर की, जाफरानी हो गईं !!
सोचता था ख़त लिखूं पर, सामने वो मिल गए !
जिनको लिखना था वो सब बातें, ज़ुबानी हो गईं !!
यूं तो मुझको टोकता रहता था, ये मेरा जमीर !
ख्वाहिशों को पर लगे तो, आसमानी हो गईं !!
कल तलक जो उंगलियों चलती थे मेरे साथ साथ !
बेटीयाँ वो देखिये कब की, सयानी हो गईं !!
इश्क की पेचीदगी मैं, क्या सिखाता रात भर !
आँखों से ही बातों की सब तर्ज़ुमानी हो गईं !!
लज्जतें गुलकारियाँ, उनके बदन के नक्श-ए-पा !
बस इसी हसरत में गुम, शामें सुहानी हो गईं !!
उनकी आँखों में अजब बेगानियत थी आज तक !
जब पुराने ख़त खुले तो, पानी पानी हो गईं !!
हरीश भट्ट
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