Tuesday, May 29, 2018

तरही गजल .वो तुम्हारे हुस्न की रानाइयाँ

वो तुम्हारे हुस्न की, रानाइयाँ ।।
और ये जां सोखता, अंगड़ाइयाँ ।।

साथ में तुम चल सको, तो चलो ।
हैं खड़ी हर मोड़ पर, तन्हाईयाँ।।

इस कदर तन्हां रहा हूँ, रात में ।
दिन में मेरे साथ थी, परछाइयाँ ।।

मैँ किनारे पे खड़ा, तकता रहा ।
उनकी आँखों में रही, गहराइयाँ ।।

दोस्तों से दूर हो, जाओगे तुम  ।
इतनी भी अच्छी नही, ऊँचाइयाँ ।।

ये तुम्हारे इश्क़ का, ईनाम था ।
हर कदम पर मिली, रुसवाईयाँ ।।

जब तुम्हारी याद दुल्हन सी सजी ।
देर तक बजती रही,, शहनाइयाँ ।।

हरीश भट्ट

लघु कथा

लधु कथा
विषय -अनकहा सा कुछ

☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆
"माँ में ऑफिस को निकल रही हूँ बाय....
सरिता ने बैग में जरूरी फाइल्स रक्खी और कंधे से टांगते हुए रसोई में खड़ी माँ से कहती हुए ओफ्फिस के लिए निकल पड़ी
सरिता...अपनी नॉकरी के लिए बहुत स्ट्रिक्ट थी पिता के जाने के बाद उसकी ही नॉकरी से घर चल रहा था वरना माँ की बीमारी घरखर्च बहन की पढ़ाई सब कैसे होता इन सब में कब उसकी शादी की उम्र निकल गई उसे पता ही न चला
"रुक तो सरु नाश्ता तो करती जा ले लगा दिया हैं टेबल पर..माँ ने पीछे से आवाज लगते हुए कहा
नही माँ देर हो जाएगी बस एक घूंट दूध दे दो एक ब्रेड का पीस उठाते हुए कहा था सरिता ने
"बात तो सुन आज शाम पांडे जी का परिवार आ रहा हैं घर पर तुझे देखने मैँ सब तैयारी करके रखूंगी बस तू 6 बजे तक आ जाना माँ ने हुलसते हुए कहा"
"माँ कितनी बार तो कहा हैं ये देखने दिखाने का प्रोग्राम मत बनाया करो मेरे पीछे मुझे अभी शादी नही करनी हैं"
सरिता ने मुह बनाते हुए कहा
"देख सरु अभी अभी नही के चक्कर में कई अच्छे रिश्ते हाथ से निकल गए भादों से तुझे 28वां लग गया हैं अब और कितना रुकेगी तेरे पीछे तरु भी बैठी हैं अभी तक"
""माँ यार तुम अब शुरू मत हो जाना अभी दिसंबर तक तो नही दिसंबर में प्रोमोशन डिउ हैं और मुझे यकीन हैं हल्द्वानी ब्रांच ऑफिस शुरू होते ही मुझे ही ब्रांच मैनेजर बना कर भेजा जाएगा प्लीज उन्हें मना कर देना आज तो नही हो पायेगा आज प्रेजेंटेशन भी हैं ""
""सरु सुन तो देख मेरा कोई भरोसा नही कब ऊपर का बुलावा आया जाए अपने सामने तुम दोनों बहनों का संसार बसता देख लू बस ...मान ले बेटा"
मां वैसे भी मेरी शादी की इच्छा नही जब उम्र थी तब जिम्मेदारी का बोझ था अब मन ही नही करता सरिता ने माँ का कंधा पकड़ते हुए कहा छोड़ ये रोज रोज की बात"
"सरु ऐसा मतबोल ऐसा भी नही की तरु की कर दें ब्राह्मण परिवार की बड़ी लड़की बिनब्याही राह जाए तो कैसे छोटी की हो"
"रहने दो माँ ईसे किसी की फिक्र नही ईसे तो बस अपनी नॉकरी प्यारी हैं ये न खुद करेगी न किसी की होने देगी" अंदर से तरु झुंझलाते हुए बोली थी
झक्क सा पढ़ गया था सरिता का चेहरा.. बहन का उलाहना सीधे दिल पर लगा
"ठीक हैं तरु में तैयार हूं बस इतना बता दो मेरे जाने के बाद माँ की दवाई घर का किराया तेरे खर्चे कहाँ से आएंगे ... मैने भी तो तुझसे कहा था मेरे ऑफिस में स्टेनो की नॉकरी हैं कर ले पर तुझे तब एमबीए करना था आज तेरी नॉकरी होती तो कर लेती मैं शादी" और बहन में तेरी शादी में रुकावट बनू ऐसा तो सोच भी नही सकती मैं"
"माँ किस लड़की का सपना नही होता कि वो शादी कर के अपना संसार बसाए पर माँ आपने ही कहा था न बाबू जी के जाने के बाद कि सरु अब तू ही हैं बाबू की जगह
बोलो माँ मेरे लिए शादी जरूरी हैं या जीना
भारी होती आवाज और आंखों में तैरते पानी को छुपाती हुए सरिता बस स्टैंड की तरफ निकल चुकी थी
तरु माँ की भर आईं आंखें देख रही थी कितना कुछ तो कह दिया था फिर भी कुछ तो अनकहा रह गया था सरु कि बातों में
हरीश भट्ट

लघु कथा अनकहा सा कुछ

लधु कथा
विषय -अनकहा सा कुछ

☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆
रोहन ने मोबाइल को ऐसे देखा जैसे कोई दुश्मन हो... हद हैं सुबह से उसकी प्रोफ़ाइल पर लगातार नोटिफिकेशन आ रहे थे पर ...पर जिसका इन्तजार था उसका अभी तक भी नहीं परसो शाम से न तो शीतल ने उसे कोई मेस्सेज किया था न उसकी प्रोफ़ाइल पर ही आई थी
रोहन ने शीतल की प्रोफाइल चेक की ...नहीं अभी तक तो हैं प्रोफाइल में उनफ़्रेंड भी नहीं किया फिर उसका मैसेज क्यों नहीं...परसो से अब तक एक भी नही.... ऐसा तो कभी नही हुआ
तीन साल हो गए थे रोहन और शीतल को इस आभासी दुनिया में बिना इक दुसरे को जाने बिना देखें इक ऐसा अनकहा अनबूझा रिश्ता हो गया था दोनों के बीच की जब तक एक दुसरे को मेस्सेज न कर लें सांस नहीं आती थी... सुबह की गुड मोर्निंग हो... या रात की गुड नाईट दिन भर क्या खाया.. क्या पिया ...क्या पहना... कहाँ हो ...कैसी लग रही हूँ ...मिस कर रही हूँ कब मिलोगे ...इन्हीं सब में बीत जाता था
फिर ऐसा क्या हुआ की कल शाम से कोई तवज्जो ही नहीं
परसो शाम तो मेसेज किया था उसे ...रोहन ने मेसेजर ओन किया आखरी मेसेज शीतल का ही था....."ओके जब घर आ जाओ मेसेज कर देना बाय टेक केयर स्वीट ड्रीम्स लव यु डियर ""

रोहन परसो दोपहर से हॉस्पिटल में ही था डेंगू हुआ था उसे लगातार बिगड़ती हालत ने उसे भर्ती करवा ही दिया ...कमजोरी इतनी की टॉयलेट तक जाना मुश्किल शायद बैड पर ही करवाया था रीमा ने ..ओह रीमा से तो मिलवाना ही भूल गया ...रीमा उसकी पत्नी थी
पूरी रात रीमा उसके सरहाने बैठी रही रात अपने हाथ से खाना खिलाया दो बार तो कपड़े भी उसी ने बदले उल्टी के कारण ....रात पता नही कब तक तो सर पर ठंडी पट्टियां रखने में बीती याद नही उसे... हाँ परसो शाम जब रीमा दो मिनट के लिए दवाई लेने नीचे मेडिकल स्टोर पर गई तब मेसेज किया था उसने शीतल को की वह हॉस्पिटल में हैं प्लेटलेट्स 30000 आ चुके हैं कमजोरी बहुत हैं पता नही क्या होगा
साथ ही यह भी लिख दिया था की रीमा मेरे साथ ही हैं मेसेज देख के करना जरा
और फिर डेटा कनेक्शन आफ कर दिया था मेसेज डिलीट करके तब से कल का दिन तो उसे होश ही नही था और आज अभी तक तो कोई मेसेज नही शीतल का

तभी रीमा आ गई शायद चाय नाश्ता लाने गई थी
"उठ गए आप लीजिये चाय पी लीजिये"
"और सुनो आज की रिपोर्ट ठीक हैं प्लेटलेट्स बढ़ रहे हैं ठीक हो जाओगे आप मैने माँ भगवती से मन्नत मांगी थी जब आप ठीक हो जाओगे तो हम चलेंगे चुन्नी चढ़ाने"
मुस्कुरा दिया था रोहन
लाइये मोबाइल मुझे दीजिये में पढ़ के सुना देती हूँ आपके मेसेज अरे ...आप तो सारा दिन मोबाइल पे रहते थे किसी ने पूछा नही मेसेज में की कैसी तबियत हैं कहाँ गई आपकी वो गर्ल फ्रेंड्स जो रोज मेसेज करती थी सुबह शाम.... रीमा ने विजयी भाव से मुस्कुरा कर रोहन की तरफ देखा था
और रोहन को उसकी आँखों में बहुत कुछ दिखा था कहा अनकहा सा ....उसे शीतल का मैसेज याद आ गया ओके मेसेज कर देना जब घर आ जाओ टेक केयर लव यू .....
उसने रीमा का हाथ कस के पकड़ लिया और भर्राये गले से कहा ....नही रीमा मेरी सच्ची गर्लफ्रेंड तो तुम हो
सिर्फ तुम
रिश्तों की परिभाषा समझ गया था वह शायद

हरीश भट्ट

दाग दामन में लगे हैं

मिसरा -ए-तरह- "ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ"
एक टूटी फूटी कोशिश मेरी भी बेबहर

दाग दामन में लगे हैं की मिटा भी न सकूँ !
और उसपे सितम ये की दिखा भी न सकूँ !!

ऐसे रूठा हैं वो मुझसे की, मना भी न सकूँ !
ढूँढने उसको चला हूँ, जिसे पा भी न सकूँ !!

जब्त ने इश्क में बहरहाल,, मुझे रोका हैं !
हाल-ए-दिल अपना मैं, सुना भी न सकूं !!

कुछ तो तूने भी दिल से, पुकारा नहीं होगा !
वर्ना ऐसा भी नहीं था की में आ भी न सकूं !!

मैंने पहलू में उसे सीने से, लगा रक्खा था !
वो भी सोया था ऐसे की, जगा भी न सकूँ !!

तेरे ही इश्क के इलज़ाम,, बहुत थे वरना !
वर्ना ऐसा भी नहीं सर को उठा भी न सकूँ !!

हरीश भट्ट

जब तुम होते हो साथ

सुनो
जब तुम
होते हो साथ
ये आकाश
क़दमों के नीचे लगता हैं
दूर तक पसरा हो जैसे
सुरमई नीलिमा लिए
उन्मुक्त सागर
आतुर हो जैसे
छूने को
तलवों को मेरे

संभावनाओं का विस्तार
अनंत को
पा ही लेता हैं
समय का बंधन
न किसी पल की
व्यस्तता
एकाकार हो जैसे
इस श्रृष्टि से
और उस के
प्रतिबंधों से
आजाद होने को मेरे

तुम्हारा यूं होना
ऐसे ही सुखद हैं
जैसे बारिश के बाद
की सुनहरी धूप
जैसे सुबह की
मखमली ओस
जैसे दूज की
चांदनी की चंचल फुहार
तुम्हारी खुशबू से
ओत प्रोत
ये कमसिन हवाएं
छूनेको आतुर
हो जैसे
रक्तिम गालों को मेरे

सुनो
रहोगे न ऐसे ही
साथ मेरे '
चाहे आकाश पैरों तले हो
या की विसंगतियों
सा सर पर
सपनीला सागर हो
या की तपती रेत सा
मरुस्थल
मुझे और
कुछ नहीं चाहिए
तुम्हारे पास होने का
एहसास ही बहुत हैं
साँस लेने के लिए
ताजिंदगी ...!!!!

हरीश भट्ट

चट्टान का वो छोर

सुनो
याद हैं तुम्हें
उस चट्टान का
वो स्वप्निल सा छोर
न जाने कितने पल
साथ गुजरे थे हमने
याद हैं तुम्हें

तुम हमेशा
एक हाथ के फासले पे
बैठते थे
वो पहली बार
जब हम बैठे थे
उस दिन
सामने देखते हुए
क्या कुछ नहीं कहा था
तुमने न
मैंने तब, बस
कनखियों से देखा था
तुम्हें इतने करीब
तुमने तो
देखा भी नहीं

याद हैं
तुमने उकेर दिया था
मेरा नाम
उस किनारे पर
कितनी शिद्दत से
तुम्हारी बनाई पेंटिंग हो
या पहली कविता
यही तो सुनाई थी
तुमने मुझे
और में सोचती थी
की कब
ढाल लिया तुमने
कविता में
और स्वयं में
मुझे

सुनो
क्या कहते थे तुम
लवर्स पॉइंट न
हसीं आती हैं आज भी
जब तुम कहते थे
पाकीजा का वो डाइलोग
"ये पैर
जमीन पे मत रखना
मैले हो जायेंगे"
सच में
प्रेम था न तुम्हें
बेइंतेहा मुझसे
और उस जगह से भी
कितना तो शरमाते थे तुम
मुझसे भी जियादा
सब कुछ तो
कहते थे तुम
काश की कहा होता
तुमने
वह
जो मैं
हमेशा सुनना चाहती थी
हमेशा
पर...

आज में वहीँ हूँ
उसी जगह
उसी छोर पे
जहाँ बैठते थे
तुम और में
वो एक हाथ का फासला
अब
सदियों का हो चला हैं
अंतहीन सा

तुम कभी
लौटे होंगे शायद
कभी तो आये होंगे
और बैठे होंगे
इसी जगह पर
जहाँ बैठते थे कभी
हम अपने
सपनों के पंख फैलाये
आकाश छूने की
लालसा में
मेरा नाम
अब मिट सा गया हैं
तुम्हारी आस की तरह
वक्त की धुंध
गहरा गई हैं
उस पर
इन्तजार हैं मगर
उस छोर को
लौटने का तुम्हारा
तुम आओगे न
किसी दिन
बोलो ....!!!

हरीश भट्ट

यूं तो वो मेरी टीचर थी

यूं तो वो मेरी टीचर थी

काटन की ग्रे शेड की साड़ी
और फिरोजी रूमाल
उन्हें पसंद था शायद
मुझे भी
सुबह की अटेंडेंस
और उनकी मुस्कराहट में
'यस मेम' कहना
भूल जाता था कई बार
मैं उनका फेवरेट स्टूडेंट था
और पूरे स्कूल में मेरी
वो सबसे फेवरेट थी
यूं तो वो मेरी टीचर थी
.
कापी घर भूल आने पर भी
कभी कुछ कहती न थी
मेरे छुट्टी के झूठे बहानों पर
वो बस
चश्में के पीछे से देख कर
मुस्कुरा देती थी
वैसे कोई नया बहाना
नहीं होता था मेरे पास
पूछती वो मगर अक्सर थी
यूं तो वो मेरी टीचर थी
.
कई बार लगा की
मेरी टेस्ट कापी पर
कुछ नंबर
यूं ही मिल गए मुझे
वैरी गुड और एक्सीलेंट
सबसे जियादा
मिला करते थे मुझे
उनके पढ़ने का अंदाज
सबसे जुदा था
अपनी यूनिवर्सिटी की
वो टापर थी
यूं तो वो मेरी टीचर थी
.
मैंने कभी
उन्हें नाराज नहीं देखा
आँखें बदलने का
अंदाज नहीं देखा
मुश्किल सवालों का हल
कभी मुझसे नहीं पूछा होगा
हालाँकि
होमवर्क पूरा न करने पर
डांटती वो मुझे
जी भर थी
यूं तो वो मेरी टीचर थी
.
किताबों के अलावा भी
चेहरे पढना
सिखाया था उन्होंने
धैर्य स्नेह विश्वास का
दीपक भी
जलाया था उन्होंने
व्यावहारिकता क्या होती हैं
यूं ही तो बताया था उन्होंने
रिसेस तक
मुरझा जाते थे हम
तरोताजा वो मगर
दिन भर थीं
यूं तो वो मेरी टीचर थी

हरीश भट्ट

अमृता

अमृता को याद करते हुए
इमरोज का ख़त जो कभी पोस्ट नहीं हुआ शायद कुछ ऐसा होगा .....

अमृता,
कल तुम्हारे जिस्म से
रात का एक लम्हा
टूट कर
गिर गया था शायद
सुबह ओस से भीगा
सहला गया मुझे
कतरा कतरा
जिस पर लिखा था
एक नाम
बेतहाशा ही
पूरी शिद्दत से
जो मेरा नहीं था
फिर भी हर शाम
ओड़ लेता हूँ में तुम्हें
गुलमोहर की तरह
.
मैं साहिर नहीं
न ही माहिर हूँ
शब्दों से खेलने में
बस खामोश
लफ्जों का हमसफ़र
सुलगते हुए जज्बातों को
एश ट्रे में मसल लेता हूँ
सिगरेट की तरह
अनदेखा कर देता हूँ
तुम्हारी उकताहट को
और अपनी कैफियत को
.
तुम्हारी यादों की सीलन
मेरे पूरे बदन पर हैं
पास होते हुए भी
तुम्हारे सांसों की धूप
पिघला नहीं पाती इसे
मेरे हिस्से में
तुम्हारे होंठों की
गर्माहट नहीं शायद
.
तुम मेरे साथ रहती हो
पर किसी और के साये में
आँखों की कोर
रेतीली सी हो गई हैं
सोख लेती हैं हर नमी
तुम्हारे इत्र की हैं
या तुम्हारे बदन की
खुशबू
महकाती बहुत हैं
सरे शाम ही
कैद रक्खा करो इन्हें
.
सुनो
कंपकपाते लम्हों को
एकतरफा कर दो
मेरे हिस्से की सिसकियाँ
मेरे सरहाने रख दो
किसी शिकश्ता साज़ की तरह
बजने दो
नेपथ्य में कहीं
मैं उतर जाना चाहता हूँ
तुम्हारे अक्स के शीशे में
अनछुए ही
अनकहे ही
.
बस इतना कह दो
इमरोज
ये जिस्म भले न हो
रूह पर मगर
तुम्हारा हक हैं
सिर्फ तुम्हारा
साहिर होना
बाकमाल होगा
पर इमरोज होना भी
बेकमाल नहीं
.
(हरीश भट्ट

लघु कथा रूम न. 8 का पेशेंट

रूम न. 8 का पेशेंट...

अचानक आंख खुली थी शायद या नींद ही नही आई थी बस चेतना लौटी थी पता नही
कमरे में नाइट बल्ब का पीलापन था तो पता चला रात हैं शायद ....साइड में लगी मशीन लगातार बीप कर रही थी इसीसे पता चल रहा था की दिल धड़क रहा हैं यानी आदमी जिंदा हैं... हल्की सी ठंडक हो चली हैं ...बाहर अंदर पूरी तरह सन्नाटा... पिछले कुछ दिनों से नाम तो जैसे गुम सा गया हैं रह गया हैं तो बस "रूम न. 8 का पेशेंट"... दवाइयों का कैसेलापन साँसों में भभक रहा हैं
जिस्म महसूस नही हो रहा...एक हाथ सूज गया हैं लगातार चल रहे आई वी की निडल से
बैठने का मन था पर उठने की हिम्मत नही थी पहली बार महसूस हो रहा था कि अपना शरीर इतना भारी भी होता हैं कि हाथ भी न उठा सकें...
मौत का एक दिन मुअय्यन हैं
नींद क्यों रात भर नही आती
ग़ालिब की ये चिंता बेवजह नही रही होगी
उठने की कोशिश में बेड चरमराया तो पास लेटे बेटे की आंख खुल गई कच्ची नींद में होगा या फिर खटका होगा तभी उठ गया
पापा क्या हुआ आप लेटे रहिए ...बेटा कितने बजे हैं बांकी लोग कहाँ हैं जरा सा ये बेड का सरहाना उठा दे थोड़ी देर बैठूंगा  मैंने कोशिश करके कहा
बेटे ने बेड को जैक लगा कर उठा दिया फिर मोबाइल में टाइम देख के बताया 12:30 बजे हैं और सब लोग घर गए हैं आज छोटी दीवाली हैं न पूजा का सामान वगैरा खरीदना था
दीवाली ...इतनी जल्दी ..अभी कल तो करवा चौथ थी
याद करने की कोशिश में सोचा मैने ...
तू नही गया पटाखे लेने...यूँहीं ही पूछ लिया मैंने
नही ...मन नही हैं रोशनी के लिए लड़ियाँ लगा दी थी सुबह ..आंख भर देखा था मैंने उसे मन नही के जवाब पर
पर दुनियादारी तो निभानी ही हैं साल भर की दीवाली जो हैं हॉस्पिटल का क्या हैं वो तो आना जाना सा हो गया हैं
मेरा मोबाइल कहाँ हैं ..दे तो जरा
यही हैं पापा मेरे पास पर आप आराम करो मम्मी  ने कहा हैं में काल अटेंड कर लूंगा ....आपके ऑफिस के सभी काल में ही अटेंड कर लेता हूँ
दिखा  तो  जरा ...मम्मी को मत बताना..वैसे भी नीद नही आ रही कोई  इम्पोर्टेन्ट मेल या मेसेज तो नही था बेटे से मोबाइल लेते हुए कहा मैंने
काल लॉग और मैसेज देखे पिछले कई दिन के मैसेज नोटिफिकेशन मेल्स भरा बैठा था मोबाइल जैसे
धनतेरस दीवाली के शुभकामना संदेश ऐसे ही तो भेजता रह हूँ मैँ भी बिना जाने की पढ़ा गया या नही अच्छा सा लगा कि कुछ लोग के होने न होने से फ़र्क़ पड़ता हैं शायद
पापा कल दीवाली हैं सुबह डाक्टर ने कहा हैं घर जाना चाहो तो जा सकते हैं चलोगे क्या
घर ...पीली रोशनी में भी उसकी आँखों में चमक थी उसी से पता चला कि कई दिन हो गए शायद घर से अलग
पापा ...आप सो जाओ न
तू सो जा बेटा मुझे नींद आएगी तो  सो जाऊंगा
जब तक आंख खुली हैं जीने का भरम हैं वरना तो क्या पता आंख खुले ही नही
ठंडक गहराती रात के साथ बढ़ गई हैं चेतना पूरी तरह से लौट चुकी हैं तभी याद आ रही हैं सब बातें
हां कल घर चले जायेंगे दीवाली जो हैं फिर न जाने कब आये न आये
बेटे को नींद आ गई थी शायद इत्मीनान हो चला था उसे इसलिए नींद भी गहरा गई थी उसकी
...हरीश ...

किसी बयार का झोंका अभी चला ही लगे

1212 1122 1212 22(112)

ग़ज़ल

किसी बयार का झोंका अभी चला ही लगे!
कोई है ख्वाब जो आँखों में बस पला ही लगे!!

वो बात करती है और मुस्कराने लगती है!
नज़र चुरा के मिलाना तो बस अदा ही लगे!!2

दिए हैं दर्द मुझे और जख्म दे डाले!
कभी कभार मुझे दर्द भी दवा ही लगे!!3

छुपा रहा है वो नजरें न जाने क्यूँ मुझ से !
हर एक बात पे चेहरा भी कुछ झुका ही लगे!!4

कहीं हुई कोई दस्तक है उसके आने की!
ये ओर बात हैं मुझसे तो बस खफा ही लगे  !!5

सुबह से शाम हुई और शब् है होने को!
नहीं है आया अभी तक कहीं गया ही लगे!!6

खफ़ा तू होती है मुझ से मगर जताती नहीं!
मुझे तो रूठना तेरा बहुत जुदा ही लगे!!7

...आभा दूनवी

प्रेम कथा

नमस्कार दोस्तों
(एक सत्य कथा शाश्वत प्रेम और संघर्ष की)
संवेदनहीन होती जिंदगी में भी कभी कभी कुछ ऐसे लोग ऐसे पल  मिल जाते हैं जो शिद्दत से याद रह जाते हैं
मुझे याद हैं छोटी सी तकलीफ पर भी कई बार किस्मत और भगवान् को कोसते हैं हम पर वास्तव में  दुःख क्या यही हैं ?
चलिए आज में आपको मिलवाता हूँ मैं  रितेश और उसकी पत्नी अर्चना से
रितेश 32-34 की उम्र पिता का साया उठ चूका था सर से ओड़िसा  के एक छोटे से क़स्बे बेलपहाड़ से रोजगार की खोज में हरिद्वार आ गया और जहाँ में कार्यरत हूँ उसी फेक्ट्री में  मशीन ओपरेटर के रूप में कार्य करने लगा सुन्दर सुशील पत्नी और प्यारा सा ९ साल का बेटा हसमुख मिलनसार और व्यवहारिक एक बात  और
समाज से परिवार से बगावत कर अर्चना से  प्रेम विवाह किया था रितेश ने..जाहिर हैं प्रेम भी..
पर इतना ही परिचय नहीं हैं रितेश का ...
एक परिचय और भी हैं  दुःख पीढ़ा और हताशा के बीच साहस धैर्य प्रेम और संघर्ष से भरे 8  साल का परिचय विवाह के एक  दो साल बाद से ही रितेश की पत्नी के सर में दर्द रहने लगा था उसके निवारण के लिए डाक्टर्स के द्वारा दिए गए अत्यधिक पेनकिलर ने सर के दर्द से आराम तो दिया पर साईड इफेक्ट के रूप में एक ऐसा दर्द दे दिया जिसकी परिणिति बहुत भयावह थी । बेटे के जन्म होते होते रितेश को पता चला की पत्नी की दोनों किडनी में इन्फेक्शन हो चूका हैं दुधमुहा बेटा, कमजोर आर्थिक स्थिति और अपनों से कई हजार किलोमीटर की दूरी शायद यही वह स्थिति होती हैं जब इंसान परिस्थितियों से टूट जाता हैं और मैंने तो कई ऐसे पति भी देखे हैं जो पत्नी को ही छोड़ देते हैं
लेकिन रितेश नहीं टूटा उसने ठान ली थी की चाहे जो भी हो वह अपनी पत्नी का इलाज करवाएगा
कुछ सम्बन्धियों से कुछ दोस्तों और स्टाफ से कुछ फेक्ट्री की आर्थिक सहायता से वह बीमार पत्नी को छोटे से बेटे को गोद में उठाये बड़े से बड़े हॉस्पिटल तक ले के गया ..हर तीसरे दिन डाइलोसिस ऊपर से  रोजगार का दवाब पत्नी का टूटता मनोबल पर उसने हिम्मत नहीं हारी
लेकिन  किस्मत को कुछ और ही मंजूर था चार साल पहले अचानक डाक्टर ने वो फैसला सुना दिया जिसकी उम्मीद शायद उसे नहीं थी  की किडनी ट्रांसप्लांट करना जरूरी हैं वरना जान का खतरा हैं
आप समझ सकते हैं एक किडनी ट्रांसप्लांट का खर्चा हमारे देश में लाखों में आता हैं और फिर सबसे बड़ा सवाल किडनी कहाँ से आएगी....??
यही वो क्षण हैं  जहाँ अपने जीवनसाथी के प्रति प्रेम स्नेह और जिम्मेदारी का एहसास होता हैं.. प्रेम और सप्तपदी के वचन निभाने का क्षण..
यही वो क्षण की जब दुनिया डूबती हुई सी लगती हैं और कोई साथ देने नही आता न परिवार न दोस्त न कोई और तब अपने बेटे के लिए अपने प्यार और  अपनी बेहद प्यार करने वाली पत्नी के लिए अपने वैवाहिक जीवन को बचाने के लिए उसने ये फैसला लिया की वह "अपनी किडनी" देगा
और एक महीने के अन्दर रितेश की एक किडनी उसकी पत्नी को लगाई जा चुकी थी
आप सोचते होंगे कितना दर्द और कष्ट सहा होगा कितना संघर्ष किया होगा एक दिन नहीं सालों साल शायद अब सब खत्म ...पर दर्द की  शायद  इंतहा यहीं तक नहीं थी
१० दिन बाद ही डॉक्टर्स ने रितेश को जो अभी खुद के ओपरेशन के चलते हॉस्पिटल में था बहुत कमजोर और हताश बस इस उम्मीद पे की उसकी पत्नी का जीवन बच जायेगा यह खबर सुनाई की जो किडनी ट्रांसप्लांट की गई हैं उसने भी काम करना बंद कर दिया हैं और उसकी पत्नी की हालत बहुत गंभीर हैं
अँधेरा.. घुप्प अधेरा सा पसर गया था रितेश की आँखों के आगे.. लगा सब व्यर्थ हो गया स्वयं के शरीर से एक अंग तो  कम हो ही गया कई लाख रुपये जो लोगों से उधार लिए थे इस ओपरेशन के लिए वो भी व्यर्थ और सबसे बड़ी बात उसका प्यार  ...सोचता हूँ ऐसे ही किसी अवसाद का वो क्षण होता होगा जब इंसान आपना जीवन तक समाप्त कर लेता होगा

पर रितेश किसी और ही मिटटी का बना था उसने स्थितियों से  पलायन नहीं किया संघर्ष की वो कहानी फिर एक बार शुरू हुई फिर वही हर तीसरे दिन डाइलोसिस फिर हॉस्पिटल के चक्कर फिर ट्रांसप्लांट की तैयारी इस बीच बड़े होते बेटे की जिम्मेदारियां भी..ऐसे ही चार साल और गुजर गए
2018 एक बार फिर रितेश ने कोशिश की एक डोनर भी मिल गया फिर से रुपयों का इन्तेजाम किया गया  मुझे याद हैं उसने फोन करके कहा था "सर इस बार कोई कमी नहीं होने दूंगा सब ठीक होगा पूरा विश्वास हैं मुझे ईश्वर पर और अपने प्यार पर" ...
पर ईश्वर उसकी तो वो ही जाने ऐन ओपरेशन वाले दिन किडनी मैच न होने के  कारण  डाक्टर्स ने ओपरेशन टाल दिया और दो माह बाद  की डेट दे दी।
रितेश का  फोन आया कहने लगा "कोई नहीं सर दो महीने हैं निकल जायेगे उसके बाद सब ठीक हो जायेगा"
मैं आश्चर्य चकित था उसकी हिम्मत पर..  क्या दे पाया था मैं उसे...सांत्वना के दो शब्द.. बस ..

और फिर वह कयामत का दिन भी आ ही गया
कल रात में खाना खाने बैठा ही था की रितेश का फोन आया मैंने पूछा "इतनी रात ..क्या बात हैं" ...कहने लगा
"वो चली गई सर सुबह ब्लड प्रेशर जो डाउन हुआ तो फिर ऊपर ही नहीं आया"
सुन कर एक झटका सा लगा भावशून्य सा हो गया में हाथ का कौर हाथ में ही रह गया .. कुछ कहते नहीं बना
"सर में अपनी पत्नी को ला रहा हूँ हॉस्पिटल से रास्ते में हूँ ...पत्नी की तरफ से आपको नमस्ते कहना चाहता हूँ आपने बहुत मदद की सर ...." भर्राए गले से रितेश की आवाज आ रही थी और मेरे आंखों के आगे उसका चेहरा

सांत्वना का शब्द शायद  छोटा था उसके लिए जिसने इतना सब कुछ सहा हो ..बहुत छोटा
एक बात और रितेश की यह कहानी उन सभी तथाकथित सभ्य  लोगों के मुह पर एक तमाचा हैं जो दान दहेज़ के नाम पे अपनी पत्नी को जला देते हैं बीमार होने पर हमेशा के लिए उसके घर छोड़ देते हैं या दूसरा विवाह कर लेते हैं

आज शमशान में खड़ा हूँ, देख रहा हूँ  9 बरस का बेटा अपनी माँ को अग्नि दाह दे रहा हैं ..देख रहा हूँ उस चिता को जलते हुए  सोचता हूँ की क्या चिता की आग ही सब कष्टों सब संघर्षों का अंत हैं क्या यह अग्नि मिटा पाएगी उस शाश्वत प्रेम को ....

में इस जिजीविषा इस संघर्ष के जज्बे को प्रणाम करता हूँ
उस प्रेम उस स्नेह बंधन को भी जिसे अंत तक निभाया था रितेश ने ...
(चित्र - रितेश-अर्चना)
हरीश भट्ट