हैं कौन किसी के. साथ खड़ा
हा समय का ये अन्याय बड़ा
ये मित्र तो शोभित दिन के हैं
जब साँझ हुई ,तब जान पड़ा
कल तक जो साथ मैं थे मेरे
निशदिन थे ,, चार प्रहर घेरे
पर अब विरक्त, वो मुझसे हैं
क्या अजब समय के हैं फेरे
कितनों परथा विश्वास किया
ओरों का विष भी स्वयं पिया
जब चोट लगी तब भान हुआ
व्यर्थ ही सब कुछ दिया लिया
ये साथ तेरा भी का क्या देंगे
सब दोष ही तुझ पर धर देंगे
सेकेंगे आग.. लगा के स्वयम
और साँस न तब तक ये लेंगे
हे मित्र ये जग की रीत नयी
जब रात गयी सब बीत गयी
सब चेहरे हैं..... हलकान यहाँ
और चेहरों पे...... चहरे हैं कई
ये देश हैं... मक्खन बाजों का
इन्के अभिशिप्त रिवाजों का
ओकात तेरी क्या कुछ कहदे
सिक्का हैं धान्धले बाजों का
तुम कौन विषय के साधक हो
तुम कौन..... देव आराधक हो
क्यों इतर तुम्हारा, दृष्टि कोण
क्यों भाव सृजन मैं बाधक हो
पर शक्ति नहीं ,अब लड़ पाऊँ
एकल प्रयास मैं....भिड़ पाऊँ
कोई तो साथ नहीं ..पग भर
अब क्षमता नहींकी अड़ जाऊं
फिर क्यों मैं तुम्हारी आस करूं
फिर क्यों तुमपे, विश्वास धरूं
तुम कौन सखा बचपन के मेरे
क्या पड़ी तुम्हे किस ठौर मरूं
अब साल की अंतिम बेला हैं
नववर्ष का अद्भुत...... मेला हैं
हो जश्न रहा चहु और.. मगर
मन चातक निपट अकेला हैं
तो आओ चलो इतना कर लो
जो रूठे हैं उनको उर भर लो
क्या रोष करे जब दिन कम हैं
सब राग द्वेष ,,हिय से हर लो
हा समय का ये अन्याय बड़ा
ये मित्र तो शोभित दिन के हैं
जब साँझ हुई ,तब जान पड़ा
कल तक जो साथ मैं थे मेरे
निशदिन थे ,, चार प्रहर घेरे
पर अब विरक्त, वो मुझसे हैं
क्या अजब समय के हैं फेरे
कितनों परथा विश्वास किया
ओरों का विष भी स्वयं पिया
जब चोट लगी तब भान हुआ
व्यर्थ ही सब कुछ दिया लिया
ये साथ तेरा भी का क्या देंगे
सब दोष ही तुझ पर धर देंगे
सेकेंगे आग.. लगा के स्वयम
और साँस न तब तक ये लेंगे
हे मित्र ये जग की रीत नयी
जब रात गयी सब बीत गयी
सब चेहरे हैं..... हलकान यहाँ
और चेहरों पे...... चहरे हैं कई
ये देश हैं... मक्खन बाजों का
इन्के अभिशिप्त रिवाजों का
ओकात तेरी क्या कुछ कहदे
सिक्का हैं धान्धले बाजों का
तुम कौन विषय के साधक हो
तुम कौन..... देव आराधक हो
क्यों इतर तुम्हारा, दृष्टि कोण
क्यों भाव सृजन मैं बाधक हो
पर शक्ति नहीं ,अब लड़ पाऊँ
एकल प्रयास मैं....भिड़ पाऊँ
कोई तो साथ नहीं ..पग भर
अब क्षमता नहींकी अड़ जाऊं
फिर क्यों मैं तुम्हारी आस करूं
फिर क्यों तुमपे, विश्वास धरूं
तुम कौन सखा बचपन के मेरे
क्या पड़ी तुम्हे किस ठौर मरूं
अब साल की अंतिम बेला हैं
नववर्ष का अद्भुत...... मेला हैं
हो जश्न रहा चहु और.. मगर
मन चातक निपट अकेला हैं
तो आओ चलो इतना कर लो
जो रूठे हैं उनको उर भर लो
क्या रोष करे जब दिन कम हैं
सब राग द्वेष ,,हिय से हर लो
हरीश जी बहुत ही गहरे जज्बात है इस कविता .... बहुत ही भावपूर्ण बन है ये कविता. सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteफर्स्ट टेक ऑफ ओवर सुनामी : एक सच्चे हीरो की कहानी
bahut hi achi rachna hai sir
ReplyDeleteतो आओ चलो इतना कर लो
ReplyDeleteजो रूठे हैं उनको उर भर लो
क्या रोष करे जब दिन कम हैं
सब राग द्वेष ,,हिय से हर लो
....गिलवे-शिकवों में जो समय चला जाता है फिर कहाँ लौट पाया है ..
नववर्ष के आगमन के बहाने यही समय है जब जल्दी से आपस में बैर भाव मिटा एक होकर जिया जाय
बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आना और सार्थक पोस्ट पढना ...आभार
नववर्ष की बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएं
आदरणीय हरीश जी
ReplyDeleteनमस्कार !
वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आना और सार्थक पोस्ट पढना
बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है
ReplyDelete