चंद पंक्तियाँ रखने की इजाज़त चाहता हूँ अजीब बेकसी हैं जो सवालात मैं अयाँ होती हैं
घर बसाए उजाड़ते क्यों हों
बात इतनी बिगाड़ते क्यों हो!?
वर्ना अबतक वो लौट भी आता
बेदिली से पुकारते क्यों हो!?
इनमे कबके गुलाब रक्खे हैं
इन किताबों को झाड़ते क्यों हों!?
खत पुराना जला दिया होता
उसको मिट्टी मैं गाडते क्यों हों!?
उसके गालों पे तिल नही हैं वो
उसको इतना भी ताड़ते क्यों हों!?
खाली पन्नो पे बेकसी लिख कर
इतनी शिद्दत से फाड़ते क्यों हों!?
उनपे परदा रहे तो अच्छा हैं
जख्म गहरे उघाड़ते क्यों हों!?
घर बसाए उजाड़ते क्यों हों
बात इतनी बिगाड़ते क्यों हो!?
वर्ना अबतक वो लौट भी आता
बेदिली से पुकारते क्यों हो!?
इनमे कबके गुलाब रक्खे हैं
इन किताबों को झाड़ते क्यों हों!?
खत पुराना जला दिया होता
उसको मिट्टी मैं गाडते क्यों हों!?
उसके गालों पे तिल नही हैं वो
उसको इतना भी ताड़ते क्यों हों!?
खाली पन्नो पे बेकसी लिख कर
इतनी शिद्दत से फाड़ते क्यों हों!?
उनपे परदा रहे तो अच्छा हैं
जख्म गहरे उघाड़ते क्यों हों!?
No comments:
Post a Comment