आजकल
उग आए हैं
कंक्रीट के जंगल
ओर उन शाख दर शाख
घोसलो मैं बटा हुआ आदमी
सचमुच कठफोड़ुए सा
लगने लगा हैं
हरपल
ठक ठक
खोदता हुआ अपनी ही जड़ो को
ओर इन सब के बीच
रह गये
कुछ नग्न-प्राय वृक्ष
इंतजार मैं हैं
अपनी बारी के
बटने को इन घोसलो मैं
फिर विरोधाभास भी कैसा
की जीवनदाई
वृक्षो को तो काट रहे हैं लोग
पर महसूस नही कर पा रहे हैं
अपने अंदर उगते
कॅंक्रिटी सभ्यता के बबूलो को
सोचता हू
की पर्यावर्णिक आत्महत्या का
ये कौन सा तरीका हैं
ये कौन सा तरीका हैं.
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