Friday, February 24, 2017

फिर कभी प्रेम लिखने को मत कहना

प्रिये
फिर कभी
प्रेम लिखने को
मत कहना

प्रेम में 
वीतराग होना
ठीक वैसा ही हैं
जैसे
अनमना बसंत
छू के लौट जाये
कोंपलों को
सहलाये बिना
देख लेना
मैं रुक नहीं पाऊंगा
तुम रोक नहीं पाओगी

प्रेम
कोई गणितीय सूत्र भी नहीं
सैधान्तिकता भी नहीं
परिमार्जन नहीं हुआ
तो अंतर का विच्छेद
स्तब्धकारी होगा
कचोट देगा बहुत कुछ
उसे
परिधिहीन रहने दो
अकथित ,अघोषित भी
क्योंकि
मैं प्रेम में
व्यक्त न हो पाउँगा
और तुम 

परित्यक्त न कर पाओगी 

प्रेम
पाणिग्रहण की
सप्तपदी भी नहीं
की जीवनपर्यंत
वचनों का आधिकारिक बोझ
सीने पे रक्खे रहें
अकर्मण्य सी स्थिति में भी
निभाने न निभाने के
अंतर्द्वंद में भी
इसीलिए कहा
की में जब्त न हो पाउँगा
तुम तृप्त  नहीं हो पाओगी 

यूं भी
प्रेम का सीमांकन
और परिमांकन
मेरे बस में नहीं
परिभाषित होना
कठिन ही होगा न

इसलिए ही कहता हूँ 
की मैं... प्रेम में
विरक्त नही हो पाउँगा
और तुम 
आसक्त नहीं हो पाओगी 
....हरीश भट्ट....

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