क्या कहें तुमसे कोई... शिकवे गिले भी तो नहीं !
ये तो हैं की वक्ते-रुखसत, तुम मिले भी तो नहीं !!
हमसफ़र तुम हो मेरी, इतना यकीं तो था मगर !
दो कदम भी साथ लेकिन, तुम चले भी तो नहीं !!
इस शहर में दफन हैं..... यादों के कितने कारवां !
उसपे सितम तन्हाइयों के, दिन ढले भी तो नहीं !!
हाँ तिज़ारत कागजी फूलों की.... दौलत भर गई !
गुलमुहर बागों में लेकिन, फिर खिले भी तो नहीं !!
हाथ मेरा थाम लेंगे... ये तो न था अपना नसीब !
पर बंद दरवाजों की मानिंद, वो खुले भी तो नहीं !!
कब ज़माने में मिला हैं... दोस्तों सबका मिज़ाज़ !
ज़ख्मो पर मरहम लगायें, इतने भले भी तो नहीं !!
ये तो हैं की वक्ते-रुखसत, तुम मिले भी तो नहीं !!
हमसफ़र तुम हो मेरी, इतना यकीं तो था मगर !
दो कदम भी साथ लेकिन, तुम चले भी तो नहीं !!
इस शहर में दफन हैं..... यादों के कितने कारवां !
उसपे सितम तन्हाइयों के, दिन ढले भी तो नहीं !!
हाँ तिज़ारत कागजी फूलों की.... दौलत भर गई !
गुलमुहर बागों में लेकिन, फिर खिले भी तो नहीं !!
हाथ मेरा थाम लेंगे... ये तो न था अपना नसीब !
पर बंद दरवाजों की मानिंद, वो खुले भी तो नहीं !!
कब ज़माने में मिला हैं... दोस्तों सबका मिज़ाज़ !
ज़ख्मो पर मरहम लगायें, इतने भले भी तो नहीं !!
बेवफा था तू ये माना... दिल को समझाया मगर !
ख़्वाब आँखों में किसी के.. फिर पले भी तो नहीं !!
......हरीश भट्ट ....
......हरीश भट्ट ....
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