Saturday, April 18, 2020

1 दिसंबर - याद हैं तुम्हें

सुनो ...
याद हैं तुम्हें 
1 दिसंबर 1995 

प्रणय से परिणय
तक का वो 
स्वपनीला सफर 
इसी दिन तो 
हुआ था न मुकम्मल

याद हैं न 
कल की बात हो जैसे
जयमाल के समय 
आहिस्ता आहिस्ता 
स्वयं के नजदीक आते 
देख  रहा हूँ तुम्हें 
स्वयंवरा सी तुम 
दिव्य और नैसर्गिक
और पार्श्व से आता  हुआ 
मुकेश का वह स्वर
तारों में सजके 
अपने अम्बर से ...
सचमुच पारलौकिक सा था 
वह क्षण
कुछ कहा था तुमने
मेरी तरफ झुक कर
जरा सा मुस्कुरा कर 
भरी भरी आंखों से देखते देखते 
जयमाल गले में डालते डालते 
पुष्पवर्षा के बीच
पूरी लावण्यता के साथ 
क्या कहा था ...
याद नही अब 
तुम्हें याद हैं क्या ?

और हाँ
कन्यादान पर वो स्पर्श 
जब तुम्हारा हाथ 
मेरे हाथों में रखा था 
स्वयं को सौंप दिया हो जैसे 
पूरी विस्वसनीयता के साथ
प्रवाहित होते गंगा जल
उद्बोधित होते मंत्रोच्चारण
और शगुन के गीतों के मध्य
वो पावन स्पर्श 
आज भी अनुभूतित 
होता तो होगा न अब भी 
कैसा सुख हैं 
किसी के हो जाने में 
मन वचन और कर्म से 
अविस्मृत होने वाला 
वो मात्र कन्यादान नही था 
निश्चय ही 
किसी प्रतिक्षु, याचित की झोली में 
विगत जन्मों के सुकर्मों का 
फल था जैसे 
की जैसे किसी देव ने 
तथास्तु कह 
सौंप दिया हो 
आशीर्वचन में 
ताउम्र के लिए

और फिर 
सप्तपदी तक आते आते 
दिसंबर का शीत
अपने चरम पर था 
पर तुम दहक सी रही थी
देदीप्तमान होती हुई 
अग्निकुंड के उजाले में
देवसुता सी तुम 
गठबंधन का वो दायित्व 
आज भी गुंठित हैं तुममें 
सहर्ष और ससम्मान भी
कांधे पर रख कर हाथ 
तब तो बस 
सात कदम भर थे 
पर जन्म जन्मांतर तक 
साथ चलने का व्रत लिए 
देखो
कितनी दूर चली आई हो आज
चलोगी न जन्मांतर के पार भी 
हर युग हर जन्म में
बोलो तो ...

तब तुमने 
अपने बचपन 
अपने घर आंगन 
साथी संबंधियों को 
कहा था विदा 
सजल नेत्रों से
 बरबस ही
एक नए संसार को 
गले लगाने के लिए 
किसी अपने के 
हमकदम होने के लिए 
नए अभिवादन, नए कलेवर 
और नए संबोधन के साथ 
खुद को इतर रख
सोचता हूँ 
तुम्हारे इस  ऋण से 
उऋण,  
हो पाऊंगा कभी क्या !!

अच्छा सुनो 
वो तो याद होगा न 
वो सुबह
वो जाड़ों की अलसाई सी सुबह
कुछ जियादा ही 
सर्द हो चली थी 
भविष्य की गुनगुनाहट 
महसूस होने लगी थी
और तुम्हारे कदम 
झंकृत हो रहे थे 
मेरे आंगन में 
हर कोई देखने को आतुर 
एक नजर तुम्हारी 
घर का हर कोना, हर गोशा
जैसे तुम्हारी ही राह देख रहा था 
हर दिया रोशन था 
हर द्वार 
स्वागत में बिछा हुआ सा 
सपरिवार

और वो रात
नई नवेली सी 
कुछ शरमाई
और सकुचाई सी
गुलाबों की खुशबू से सराबोर 
मखमली स्पर्श लिए
वो रात 
और खिड़की के पार 
महका हुआ सा चाँद
तुम्हारी झलक को आतुर 
आनंदित सा 
जैसे हजार रातों की 
उम्र लिए हो
सपनीले दिनों की आहट 
और उम्मीदों की नई 
कोपलें लिए हो
याद हैं न ...

हाँ मुझे 
मुझे तो सब कुछ याद हैं 
क्षण प्रतिक्षण 
पल प्रतिपल 
और सुनो
तुम आज भी 
वैसी ही हो
नव्या सी 
दुल्हन हो जैसे चिर परिचित
सकुचाई शरमाई सी 

शुक्रिया ...
कह दूं न फिर 
अर्धांग होने के लिए
😊😊
सालगिरह मुबारक हो सीमा जी 

हरीश भट्ट

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