Saturday, April 18, 2020

प्रेम पत्र

सोचा किसी को पत्र लिखूँ और कहूँ  की .....

प्रिय मुझे जब, पत्र लिखो तो !
तुम कुछ.. ऐसा सा लिखना !!
पंक्ति पंक्ति में ....तुम रहना, !
और पृष्ठ पृष्ठ, मुझसा रखना !!

लिख देना कुछ ..कागज़ पर !
मैं उसमें तुमको...पढ़ लूँगा.!! 
तुम अक्षर अक्षर.. रच जाना !
मैं चित्र चित्र सा ...गढ़ लूँगा !!
तुम अंत में अपना रख लेना !..
पर ऊपर नाम ...मेरा रखना !!
पंक्ति पंक्ति में .....तुम रहना,!
और पृष्ठ पृष्ठ, मुझ सा रखना !!

तुम छू लेना जरा सा, होंठों से !
सांसें मुझको, महका जाएँगी !! 
भावों को तूलिका ...कर लेना !
यादें ...मुझको सहला जाएँगी !
नाम भले ही ....मत लिखना !
पर एहसास ​.....​सदा रखना ​!!​
​पंक्ति पंक्ति में .....तुम रहना,!
और पृष्ठ पृष्ठ, मुझ सा रखना !!​

बीते हुए प्रतिक्षण में, शामिल !
अविरल प्रतिक्षा, लिख देना !!
अतृप्त विरह की... नीरवता  !
स्नेहिल शुभेच्छा ..लिख देना !!
उम्मीद भले तुम कम लिखना !
मुझ पर विश्वास खरा रखना !!
पंक्ती पंक्ती में .....तुम रहना !
और पृष्ठ पृष्ठ मुझसा रखना !!

लिख देना... वेदनाएं मन की !
सब अश्रु स्वेद भी लिख देना !! 
इतने वर्षों का ​.​​......​राग द्वेष ​!​
औ मन विभेद भी लिख देना​ ​!!
बस इतना अर्चन हैं ....तुमसे !
बीते दिन याद...जरा रखना !!​​
पंक्ति पंक्ति में .....तुम रहना​ ​!
और पृष्ठ पृष्ठ​,​ मुझ सा रखना!!

तुम्हारा 
हरीश भट्ट

रोज़ डे दुमदार दोहे

Happy Rose day my dear अर्धांगिनी😊😊

कुछ दुमदार दोहे आपके नाम 😊😊

लाल ललाम थी कामिनि​, कर में लाल गुलाब !​
अखियन से घायल करे,​ उसका नहीं जवाब ​!!​
नयन से गोली मारे ​!!​

रोज़ रोज़ को देख कर, मन ही मन हुलसाय ! 
रोज दिया जो रोज को, विह्सें मुह बिचकाय  !!
सड़क पे फैके सारे !!

कैसा यह  दस्तूर हैं, अजब विधि का विधान ! 
फूल फूल को फूल दे, देख सखी उपमान !! 
कहीं का ना रक्खा रे !!

जान हैं किसी और की, उसको जान न जान !
घर जो मान बढ़ा रही, उसको अपना मान !!
पतिव्रत धर्म  निभा रे !!

कंचन काया कौमुदी, कोमल कलि कचनार​ !​
क्या मैं उसको भेंट दूं​,​ मुख जिसका  रतनार​ !!​
गुलिस्तान उस पर वारे​ !!​
हरीश भट्ट

महिला दिवस

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की बहुत शुभकामनायें, उनके लिए जिनसे मेरा सबकुछ हैं .....

वो, 
जिनसे मुझे 
अपूर्णता से 
सम्पूर्णता मिली, 
परिपूर्णता भी ....
वो जो मार्गदर्शक भी बनी 
और पथ प्रदर्शक  भी
चित्तहर्षक भी , ...
वो जो सौम्यता, स्निग्धता 
और ममत्व का 
प्रतिमान हैं, 
वो जो पैरों के नीचे की ज़मी 
और सर पे 
आसरे  का  आसमान हैं, .....

वो जो 
स्नेह का पिटारा भी हैं 
और मझधार में 
कश्ती का किनारा भी 
और अनंत का सहारा भी , ....
.वो जो मंदिर की 
परिक्रमा में 
आस्था का आँचल  भी हैं 
हंसी मौन क्रंदन भी 
और स्वाभिमान का 
रोली चन्दन भी ...
वो जो दुश्वारियों को 
बुहारने का सूप भी हैं 
साक्षात देवी सा रूप भी 
और आँगन में  
खिलखिलाती 
गुनगुनाती धूप भी,..... 

वो जो अन्नपूर्णा भी हैं 
जी लेने  की प्रेरणा भी  
और उज्जवलित सी 
कांतिमय  कामना भी,...
.वो जो आशीष का 
अम्बर हैं 
प्रीत का स्वयंबर हैं 
और संभावनाओं का 
समन्दर भी 
वो जो मेरा 
समाधान भी हैं  
अभिमान भी 
और मेरा प्रतिमान भी 

वो जो एक माँ हैं 
एक पत्नी भी 
एक बेटी भी ....

बहुत शुभकामनाएँ पुनः आप तीनों को और प्रणाम भी

बुखार

ये बुखार का खुमार 
(डेंगू जनित प्रलाप)

अजब सी 
बेकसी का सबब 
और ये बुखार का आलम
सर्द कमरे में भी 
गर्मी की हरारत 
घुल सी गई हो जैसे 
बिस्तर तक पसरी कैफ़ियत 
बैचैन सा तकिया
अनमनी सी चादर
सिलवट सिलवट
इंतजार की घड़ियों की तरह 
घटता बढ़ता 
थर्मामीटर के पारे का सुर
100...101...102..103 
बेकरार आपे से बाहर 
होने को आतुर 
सफर दर सफर
नादां सी मुहब्बत की तरह
अब किसी दवा का असर
बेसबब बेअसर

हाँ 
अब चाँद रात 
पूरे यौवन पे हैं 
महसूस होने लगी हैं 
खुद की सांसों की आंच 
कितने ही दवाई के पर्चे
बेतहाशा खर्चे
सुबह शाम की 
अनगिनत जांच
रक्त जम सा गया हैं 
शिराओं में
टेस्ट रिपोर्ट भी 
तुम्हारे खत की तरह हो गई हैं 
जब भी आती हैं 
नाउम्मीदी से भरी हुई 
बुखार....
पूरी शिद्दत से 
अपनी पनाह में ले चुका हैं... 
की जैसे उसको 
बनाया गया हो 
मेरे लिए 
की जैसे किसी ने 
कस के भींचा हो 
अपनी आगोश में 
कौन आना भी चाहेगा 
अब होश में ...

बदन के टूटने का लुत्फ 
सपनों के टूटने 
से कम तो क्या ही होगा 
पलकों का भारीपन 
बेसबब बेस्वाद मन
जाने कितनी ही 
हसरतों का साया
आधी अधूरी सी झपकियां
जाने किस किस ने पूछा
जाने कौन कौन आया 
पूरी छत का बोझ
उठाये हुए 
रात गुजर रही हैं 
रफ्ता रफ्ता 
गुजरती हुई 
उम्मीद की तरह 
रेज़ा रेज़ा

ग्लूकोज की बॉटल
उफ़क पर टंगे 
चाँद सी लगती हैं 
कितनी हसरत हैं 
जरा सी गर्दन बढ़ा के 
एक झलक 
उसके मासूम से चेहरे को 
बेखयाली से तकते रहने की
उसकी टप टप को 
देखने का शगल 
होता जा रहा हैं 
दीदार ए यार हो जैसे... 
हाँ ..माशूक की 
जुल्फों से टपकती 
बूंदों की तरह 
जर्रा जर्रा  
नमकीन पानी की बूंदें 
जब बदन में 
समा रही होती हैं 
तो मखमली सा एहसास 
नसों में 
तूफान ला देता हैं

कभी कभी मगर 
किसी की ख़ुश्बू से तर
हो जाती हैं हवा
मेरे आसपास की
और सर्द कमरा
महकने लगता हैं 
किसी ने अभी अभी 
माथे पे हाथ
रखा हो जैसे 
कोई छू कर 
गुजरा हो जैसे 
और जिंदगी 
जीने मरने के तलातुम में 
लौट आई हो जैसे 
वो स्पर्श 
जा नही पाता 
देर तलक भी 

पी लेता हूँ 
ये कड़वे बदरंग से सिरप
एक सांस में 
काश की 
जिंदगी भी 
पी जाती एक घूंट में ही 
तो इतनी बदमज़ा न होती 
जाने क्यों हसरतें 
बार बार लौट आती हैं 
इंफेक्शन की तरह 
कटीली सी यादें
चुभ रही हैं
किसी इंजेक्शन की तरह 

सुनो 
तुम आओगे ना
किसी रोज़
मोगरे के फूल लिए
मुझे देखने के बहाने ही सही
शर्त रही चलो 
मेरे ठीक होने की 
ओर तुम्हारी मुहब्बत की 
निभाओगे न 
इंतजार रहेगा 
तुम्हारी सुबह 
नजदीक हैं शायद 
मेरी नींद
सो गई हैं कहीं और जा कर

हरीश भट्ट

1 दिसंबर - याद हैं तुम्हें

सुनो ...
याद हैं तुम्हें 
1 दिसंबर 1995 

प्रणय से परिणय
तक का वो 
स्वपनीला सफर 
इसी दिन तो 
हुआ था न मुकम्मल

याद हैं न 
कल की बात हो जैसे
जयमाल के समय 
आहिस्ता आहिस्ता 
स्वयं के नजदीक आते 
देख  रहा हूँ तुम्हें 
स्वयंवरा सी तुम 
दिव्य और नैसर्गिक
और पार्श्व से आता  हुआ 
मुकेश का वह स्वर
तारों में सजके 
अपने अम्बर से ...
सचमुच पारलौकिक सा था 
वह क्षण
कुछ कहा था तुमने
मेरी तरफ झुक कर
जरा सा मुस्कुरा कर 
भरी भरी आंखों से देखते देखते 
जयमाल गले में डालते डालते 
पुष्पवर्षा के बीच
पूरी लावण्यता के साथ 
क्या कहा था ...
याद नही अब 
तुम्हें याद हैं क्या ?

और हाँ
कन्यादान पर वो स्पर्श 
जब तुम्हारा हाथ 
मेरे हाथों में रखा था 
स्वयं को सौंप दिया हो जैसे 
पूरी विस्वसनीयता के साथ
प्रवाहित होते गंगा जल
उद्बोधित होते मंत्रोच्चारण
और शगुन के गीतों के मध्य
वो पावन स्पर्श 
आज भी अनुभूतित 
होता तो होगा न अब भी 
कैसा सुख हैं 
किसी के हो जाने में 
मन वचन और कर्म से 
अविस्मृत होने वाला 
वो मात्र कन्यादान नही था 
निश्चय ही 
किसी प्रतिक्षु, याचित की झोली में 
विगत जन्मों के सुकर्मों का 
फल था जैसे 
की जैसे किसी देव ने 
तथास्तु कह 
सौंप दिया हो 
आशीर्वचन में 
ताउम्र के लिए

और फिर 
सप्तपदी तक आते आते 
दिसंबर का शीत
अपने चरम पर था 
पर तुम दहक सी रही थी
देदीप्तमान होती हुई 
अग्निकुंड के उजाले में
देवसुता सी तुम 
गठबंधन का वो दायित्व 
आज भी गुंठित हैं तुममें 
सहर्ष और ससम्मान भी
कांधे पर रख कर हाथ 
तब तो बस 
सात कदम भर थे 
पर जन्म जन्मांतर तक 
साथ चलने का व्रत लिए 
देखो
कितनी दूर चली आई हो आज
चलोगी न जन्मांतर के पार भी 
हर युग हर जन्म में
बोलो तो ...

तब तुमने 
अपने बचपन 
अपने घर आंगन 
साथी संबंधियों को 
कहा था विदा 
सजल नेत्रों से
 बरबस ही
एक नए संसार को 
गले लगाने के लिए 
किसी अपने के 
हमकदम होने के लिए 
नए अभिवादन, नए कलेवर 
और नए संबोधन के साथ 
खुद को इतर रख
सोचता हूँ 
तुम्हारे इस  ऋण से 
उऋण,  
हो पाऊंगा कभी क्या !!

अच्छा सुनो 
वो तो याद होगा न 
वो सुबह
वो जाड़ों की अलसाई सी सुबह
कुछ जियादा ही 
सर्द हो चली थी 
भविष्य की गुनगुनाहट 
महसूस होने लगी थी
और तुम्हारे कदम 
झंकृत हो रहे थे 
मेरे आंगन में 
हर कोई देखने को आतुर 
एक नजर तुम्हारी 
घर का हर कोना, हर गोशा
जैसे तुम्हारी ही राह देख रहा था 
हर दिया रोशन था 
हर द्वार 
स्वागत में बिछा हुआ सा 
सपरिवार

और वो रात
नई नवेली सी 
कुछ शरमाई
और सकुचाई सी
गुलाबों की खुशबू से सराबोर 
मखमली स्पर्श लिए
वो रात 
और खिड़की के पार 
महका हुआ सा चाँद
तुम्हारी झलक को आतुर 
आनंदित सा 
जैसे हजार रातों की 
उम्र लिए हो
सपनीले दिनों की आहट 
और उम्मीदों की नई 
कोपलें लिए हो
याद हैं न ...

हाँ मुझे 
मुझे तो सब कुछ याद हैं 
क्षण प्रतिक्षण 
पल प्रतिपल 
और सुनो
तुम आज भी 
वैसी ही हो
नव्या सी 
दुल्हन हो जैसे चिर परिचित
सकुचाई शरमाई सी 

शुक्रिया ...
कह दूं न फिर 
अर्धांग होने के लिए
😊😊
सालगिरह मुबारक हो सीमा जी 

हरीश भट्ट

शिफॉन की साड़ी

शिफॉन, (साड़ी मात्र परिधान नही हैं अलंकार हैं )

सुनो, 
शिफॉन की ये 
कत्थई रंग की साड़ी 
ऐसे लिपटी हैं तुमसे 
जैसे किसी 
अवयस्क गुलमोहर से लिपटी 
कोई द्रुमलता
की जैसे 
डूबते सूरज 
की लालिमा को 
अपने आगोश में लिए 
क्षितज पर 
साँझ का धुधलका 
पता ही नहीं चलता की 
साड़ी में तुम हो 
या की तुम में साड़ी 
कैसे अंगीकृत कर लेती हो 
इतनी सहजता और 
सलीके से एकवस्त्र को 

आश्चर्य  की 
नो गज का ये घेर 
कैसे सिमट जाता हैं 
अप्रतिम काया में 
इतनी शालीनता  से
एकाकार हो 
नख से शिख तक 
विस्तार को जैसे 
मोहित कर 
एकत्रित कर लिया हो 
बांध दिया हो जैसे 
किसी उश्रृंखल नदी को 
रोक लिया हो जैसे 
किसी अल्हड़ झरने की 
फुहार को 
थाम लिया हो जैसे 
परिमल के पसार को 
बंधेज की कारीगिरी हैं 
की सम्मोहन तुम्हारा 

और उस पर 
मैचिंग 
शर्माए से कर्णफूल 
इतराई सी चूड़ियाँ 
खनखनाई सी पायल 
चाहचहाया सा मुक्ता हार
गर्वित सा तिलक 
कजराई सी आँखें  
ललायमान मस्तक 
दिग्भ्रमित करती मुस्कान 
दोनों कर्ण फलकों तक 
हैरान हूँ 
की साड़ी 
किसी भी रंग की हो 
ये सब से 
कैसे मैच हो जाते हैं  

सुना हैं 
काँधे से छिटका हुआ 
तुम्हारा ये आँचल 
हवाओं का 
रुख तय करता हैं 
बल खाता हुआ सा 
सागर की लहरों सा 
बिंदास और आवारा  
पर उसी जुड़ाव  पर 
फिर फिर 
लौट के आने को आतुर 
सुनो 
सर पर रक्खा करो 
इस बेशर्म को 
कोने से दबा कर 
बगावत न करदे वरना 

सोचता हूँ 
की साड़ी और तुम्हारा 
चिरयौवन सा  साथ हैं 
जन्म जन्मान्तर का
चिर बंधन हो जैसे 
अनुबंध हो 
भव्यता का 
और दिव्यता का 
मौसमों की तरह 
हर रंग बिखर जाता हैं तुमपे 
हर भाव 
समभाव में होते हुए भी 
निखर जाता हैं 
जब 
सिमट आती  हो तुम 
शिफॉन की 
करीने से लिपटी 
मादकता में  

सुनो 
बताओ तो जरा 
आज 
कौन सा अलंकार
पहना हैं तुमने ??

(चित्र साभार सीमा हरीश भट्ट की वाल से )

-हरीश भट्ट-

मुस्कुराहट

शुभ प्रभात 
""मुस्कुराहट""

 सुनो 

ये जो तप्त 
लहरावदार 
सुर्ख 
पनियाली 
नारंगी की फांकों सी
रक्तिम 
मेहराबें हैं न 
तुम्हारे चेहरे पे 
कान के 
इस सिरे से 
उस सिरे तक 
खींची हुई 

जैसे किसी ने 
तराश दी हो 
कोई गजल 
या की बिछा दी हो
एक हिलोरदार लहर 
चाशनी में 
पगी हुई
गुदाज़ गालों के बीच 
अनियंत्रित सी 

जैसे शाम के धुंधलके में 
सुरमई 
चांदनी रात में 
किसी कश्ती का
कोई घुमावदार 
अक्स 
पड रहा हो 
दरियाह में 
जैसे कोई चातक
जन्म जन्मांतर की
प्यास लिए हो 
स्वाति नक्षत्र की 
बूंदों के लिए 

अपने होंठों की 
तपिश को 
सुलगाये रखना 
उदासी के अंधेरों 
में खिलखिलाने 
का सबब हैं ये 
इन की गर्माहट 
शुष्क ठंडी रातों का 
सामां होगी 

जब कभी 
उदासियों का मरुस्थल 
घेर लेता हैं मुझे 
तब 
महसूस होती हैं
इन पंखुड़ियों की 
तपिश 
और इनकी 
मृदुल नमी 
तब 
निर्जर बंजर भूमि 
मन की 
लहलहा उठती हैं

सुनो 
हो सके 
तो ये सुर्ख गुलाब 
खिलाये रखना 
सदा ही 
इन मेहराबों पर 
सदा के लिए 
☺️☺️
तो आप भी मुस्कुराते रहिये ...😊😊💐💐
हरीश भट्ट 
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