Saturday, January 29, 2011

न जाने कौन गुनाहों की सजा


बुजुर्गो में कई दिन से जो रोटी बाँट रहा हैं
न जाने कौन गुनाहों की सजा काट  रहा हैं

मुहअँधेरे ही चली आती हैं आवाजे पड़ोस से
वो बेक़सूर हैं उसको क्यों इतना डांट रहा हैं

तू आसमा हैं... सरपरस्त हैं... वफादारी का
वो दिलफरेब हैं फिरभी ये रिश्ता गांठ रहा हैं

वो जिसने उम्र गुजारी.... हर एक जनाजे में
कल से बिछड़े हुए बेटे की मिटटी छाँट  रहा हैं

बुझा दिया हैं जिन्हें...... जिस्त  के थपेड़ों ने
सुना हैं उनका भी बरसों ही बड़ा  ठाट रहा हैं 

3 comments:

  1. बहुत गहन रचना ...सोचने पर विवश करती हुई

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  2. बहुत ही उत्कृष्ठ रचना है सर
    Hats off to you

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  3. हरीश जी , बहुत ही गहरी बात आपने इन चंद पंक्तियों में कह दी ............ बहुत ही विचारणीय प्रस्तुति.

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