सर्दियों की
अलसाई सी सुबह
खिड़कियों से परे
मीलों तक
पसरा हुआ सा मैं
और उस पर
क़तरा क़तरा
बर्फ कि मानिंद
बिछती हुई सी तुम
सर्द एहसास लिए कुहासा
सराबोर करने को आतुर
पर पता हैं मुझे
निष्ठुर उगेगा जब
रोक नहीं पाउँगा
वाष्पित होने से
तुम्हे
अनमनी सी दोपहर
लौट चुकी हो तुम
अपने हिमाद्र में
मेरा पसार
सिकुड़ने लगा हैं अब
धूप सी तुम
छितरा गई हो
दूर देवदार के पत्तों तक
तुम्हारी तपिश
अब भी दूर हैं
मुझसे
भुतहा साँझ
सर्द धुंधलका गहराने लगा हैं
दुबक गया हूँ जैसे
अबाबील कि तरह
किसी कोटर में
कंपकपा गई हैं ऑंखें
तुम्हारी आमद को
मुझे पता हैं
अँधेरे तराश रही हो तुम
सुझाई नहीं देती हो तुम फिर भी
रात्रि प्रहर
भाँय भाँय करता अंधियाला
मीलों तक फैला
सियाह बादलों कि कोर से
स्खलित हो रही हो तुम
सुफ़ेद रुई के फाहों सी
धुंधलकी खिड़कियों के पार
विसर्जित होते
देखना ही तुम्हे
नियति हो जैसे
तुमसे एकाकार
कब हो पाउँगा मैं
हाँ'
इन्तजार में हूँ
अलसाई सुबह का
फिर एक बार
मिलोगी न मुझे
निष्ठुर के उगने से
पहले तक
भावाष्पित होने से
पहले तक
क्षणांश ही सही
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