उसने,
कितने ममत्व से
मेरी कलाई पर
रक्षा के
दो रेशमी सूत्र बांधें !!
तिलक किया
मस्तक पर
कपकपाते हाथों से
आरती उतारी
स्वाभिमान से
कंधे को छू कर!
आजीवन रक्षा और मान का
आशीशमय संकल्प
स्वतः ही
निकलता हैं मेरे स्वर से तब !
कैसी वचनबद्धता हैं
कैसा समर्पण,
गदगद हैं वो
संतुष्ट भी ,
आश्वशत भी !!
पर ??
फिर किसी चौराहे से
निकलते हुए,
होते देख
किसी महिला का अपमान,
निरुत्तर
क्योँ हो जाता हूँ मैं,
जड़ हो जैसे
क्यों याद नहीं रहता वो
रेशमी सूत्र का बंधन,
रोली तिलक और चन्दन,
ममत्व से अभिसिंचित
मुस्कान हसीं क्रंदन
आशीष के वो पुष्प
और आरती का दिया
क्यों हो जाते हैं
नेपथ्य में.!
आखिर क्यों
कि वो मेरी सहोदरा न थी,
क्योंकि वो एक पृथक रूप हैं..
क्योंकि रक्तरंजित..
उस हाथ ने..
नहीं बाधा था,
वो बंधन,
या ये मेरा दृष्टि दोष हैं,,
क्यों नहीं देख पता..
उसमे..
में स्वयं का अभिमान,
नारीत्व का स्वाभिमान,
मेरी कलाई पर..
रेशमी सूत्र के वो धागे..
मेरा मुह चिढाते हैं..
उनकी चमक.
सह नहीं पाता मैं,
क्या अधिकार हैं मुझको..
धारण करने का फिर..
रेशमी सूत्र का वो बंधन..
इससे तो ..
सूनी कलाई का अभिशाप..
सहना ही..
फलित होगा,
किसी दिन..
यदि हर सूत्र की..
लाज न बचा पाया तो !!
अन्दर तक झकझोर दिया इस कविता ने.. सच में मौका आने पर हम नहीं बचा पाते इस रेशमी धागे का मान...
ReplyDelete