Tuesday, September 22, 2015

उनकी आँखों में चरागों से ख़्वाब जलते हैं

एक  ख़याल बस यूं ही ……… 

उनकी आँखों में चरागों से ख़्वाब जलते हैं -२ 
जाने कितनों के मोहब्बत में दिल मचलते हैं !!

यूं न हसरत से,, भरे चाँद को देखा करिये-२  
लोग कहने लगें,, दो चाँद भी निकलते हैं !!

देखने वालों ने,, तुममे  ख़ुदा  देखा होगा -२ 
राह चलते हुए,, सज़दे में लोग मिलते हैं !!

तुम न मानो मुझे अपना तो कोई बात नहीं-२  
​हम वो आशिक़ हैं जो साये से साथ चलते हैं !!

माना दुश्वार ही होगा ये मोहब्बत का चलन -२ 
ये तो अरमान हैं सम्भले से कब सँभलते हैं ​!!

तुम्हें सोचूं तुम्हें देखूं ग़ज़ल में लिख दूँ तुम्हें -२ 
ऐसी किस्मत पे तो दुश्मन भी हाथ मलते हैं !!

​-------हरीश भट्ट------ 

Sunday, September 13, 2015

जिंदगी कुछ यूं, गुजरनी चाहिये !


जिंदगी कुछ यूं, गुजरनी चाहिये !
कुछ शरारत सी भी होनी चाहिये !!

झूठ की बुनियाद पर, पैमां हैं जो !
वो ईमारत भी तो, ढहनी चाहिये  !!

दोस्तों की, आज़माईश के लिए !
तल्ख़ियां लहज़े में, रहनी चाहिये!!

टूट कर बरसे, ये  सावन की घटा !
इक ग़ज़ल ऐसी भी, कहनी चाहिये !!

तुममे मेरा अब, बचा भी कुछ नहीं !
रुख़सती, कह दो की करनी चाहिये !!

तुम जरा मुस्का के, मुड़ के देख लो !
इतनी ख़ुशफ़हमी तो रहनी चाहिये!!

लौट आयें वो परिंदे, रुख़-ब-रुख़ !
कुछ हवा ऐसी भी, बहनी चाहिये !!

दर्द.

दर्द..ताउम्र भले,,सीने से लगा रहता हैं ! 
जख्म कैसे भी हो,हर हाल में भर जाते हैं !!

दिल मैं उतरें तो,, शायद कोई बात बने !
लोग ऐसे हैं की,, नजरों से उतर जाते हैं !!

कमनसीबी तो, सर-ए-राह मिलेगी यारों !
चलो ऐसा करें की, चुपके से मर जाते हैं !!

Wednesday, April 29, 2015

ज़लज़ला : एक त्रासदी

वो जो शिद्दत से घर गया होगा !
कच्ची मिट्टी से, भर गया होगा !!

कितनी मासूम,, जिंदगी लेकर ! 
जलजला था,, गुजर गया होगा !!

सर पे जब छत दरक रही होगी !
माँ से चिपका, वो डर गया होगा !!

अब न चीखें,,  न कोई आवाजें !
उसको छोड़ो, वो मर गया होगा !!

हाथ और पैर का तो, क्या रोना ! 
जाने कितनों का, सर गया होगा !!

अब न मंदिर बचा,, न चौराहा !
काठ का घर था, गिर गया होगा !!

जिंदगी,, फिर भी मुस्कुराती हैं !
कुछ दुआ का, असर गया होगा !! 

Sunday, February 1, 2015

४५वे पड़ाव पर



नमस्कार दोस्तों
आज उम्र के पांचवें पड़ाव के मध्य में पहुँचते पहुँचते हर्षित   तो हूँ पर   कुछ अनमना सा गया हूँ विचलित  भी,,,,,,,,,,,,, जो  बीत गई सो बात  गई से संतुष्ट नहीं हो पाता
कल रात से ही व्यग्तिगत रूप  से  तथा फोन से भी  मित्र लोगों की शुभकामनाओं के पुष्पगुच्छ समेटते समेटते प्रफुलित मन से कृतज्ञ भी हूँ  इस आपाधापी में भीड़भड़क्के में और टूटती वर्जनाओं में   भी लोग किसी को याद करलें तो मन में एक आस तो रहती ही हैं कि जीवन अभी बांकी हैं
सोचता हूँ की जन्म से ले कर अब तक न जाने कितनी भूमिकाएं निबाहने को मिली न जाने कितने किरदार गढ़े स्वयं ने और न जाने किस किस ने, कुछ संबंधों  को तो केवल नाम ही दे पाया,,, कुछ  को वो  भी  नहीं,, कुछ को पूरी तत्परता और दृढ़ता से,, तो कुछ को बस  अनमने ही !!
  क्या ऐसा केवल मेरे साथ ही हैं ??
क्या पुत्र  से अधिक में पिता बन सका ? क्या प्रिय  से अधिक पति , क्या सहयोगी  से अधिक  मित्र बन पाया ? क्या सहकर्मी से अधिक सहधर्मी ?
मुझमें न जाने कितना कम रह गया ,,,कुछ पता चला तो कुछ  नहीं,, कभी किसी किसी ने जता दिया किसी    ने अक्षरश निभा लिया अनकहा सा
न जाने किस किस ने मुझे दृष्टि के किस किस कोण पर रक्खा !! पाना भले ही नियति न हो पर खोया तो मेने स्वयं के उपक्रम से ही हैं!! स्वीकार लेने में हर्ज ही क्या हैं। ....
आप भी कहेंगें ,,,भाई जन्मदिन पर ये  कैसी नकारात्मकता,,, पर दोस्तों इस पहलू के बिना दूसरे का क्या मोल ,,बात केवल "उम्रदराज " हो जाने तक की तो नहीं ही हैं। ..
आज जब आगुन्तक सांसों की गिनती कम देखता हूँ तो सोचता हूँ कितना  सा ही तो  बचा  हैं यूं भी गणित में मेरे नम्बर हमेशा कम ही रहे हैं फिर क्यों ये दुराव- छिपाव और कैसा प्रपंच
संबंधों की परिभाषाएं दुबारा जननी ही होंगी
तमाम  शुभकामनाओं के लिए ह्रदय से धन्यवाद ,,शुक्रिया