Saturday, September 14, 2013

बिंदी बिंदी शून्य होती....... हिन्दी


मैने उसे देखा हैं
और  रोज देखता हूँ

मेरे शहर मैं
किंचित सी काया लिए
तार तार होती छाया लिए
नग्न बदन
घूमती रहती हैं
छिपती रहती हैं
उस टिटिहरी की तरह
जो हर समय
बहेलिए के निशाने पर हो

उसकी आँखो मैं
अश्रु
सूख चुके हैं शायद
सपने
टूट चुके हैं शायद
अपनी पलको पर
एक उम्र का बोझ लिए हुए
उसे मैने देखा हैं
और  रोज देखता हूँ

मेरे शहर की  सड़को पर चलते हुए
आज उसे
हज़ार साल गुजर गए हैं
लेकिन लगता हैं
वह तब से चल रही हैं
जब
उस सड़क की जगह
एक छोटी सी
पगडंडी हुआ करती थी
तब वह
इतनी जर्जर ना थी
उसकी आँखो मैं
सुनहले सपने थे
उसके सिर पर
स्वाभिमान का ताज था
लेकिन आज
अपने शहर की सड़के नापते देख
सोचता हूँ
की इस जर्जित काया को
घृणित व वहशी नज़रों से देखने वाला व्यक्ति
क्या मेरे ही शहर   का हैं

लेकिन एक दिन
कुछ सरकारी नस्ल के लोगो ने
उस काया को
कुछ एक बनावटी परिधान पहनाए
कुछ एक आभूषण
लाद दिए उस पर
मैं भौचक्का सा
देख रहा था
बदलती तस्वीर को

मालूम हुआ की
एक दिनी प्रदर्शनी मैं
उस की नुमाइश की जानी हैं
मेरे मन हुआ
की दौड़ कर जाऊ
ओर उतार के रख दू
उस बनावटीपन को
ओर जाहिर कर दू
उस जर्जरता को
जिसे मैने देखा था
अपने शहर के चौराहे पर

पर अफ़सोस
मेरे पहुचने तक
नुमाइश ख़त्म हो गए थी
और  वो हाथ मैं रखे
अंग्रेजी में छपे प्रशंशा पत्र पर से
कुछ पढ़ती  हुई
वापस आ रही थी
मेरे शहर की ओर
उसके बदन पर रह गये
कुछ रंग जो शायद
उसके घाव को छुपाने के लिए
उस पर पोते  गये थे
कुम्हला से गये थे
उसकी प्रतिमा पर
विदेशियत की कालीमा
ओर गहरा सी गयी थी

तुम उसे नही जानते शायद
.............
लेकिन मैने उसे देखा हैं
और  रोज देखता हूं
मेरे शहर मैं
बिंदी बिंदी शून्य होती
..............
हिन्दी को

देखा मैने पहले ही कहा था
तुम उसे नही जानते
क्योंकि तुम सिर्फ़
नुमाइश मैं रखी
प्रदीप्त काया को जानते हो
जर्जरता को नही
क्योकि तुम
एक "प्रोफेशनल इंडियन" हो
सभ्य भारतीय नही
एक .......
सभ्य भारतीय नही

क्या ऐसा नहीं हो सकता
की हम उस देवी को
मस्तक से लगाए
ओर एक दिनी नही
अपितु
असंख्य .....
अन्गिनित .......
हिंदी  दिवस मनाए ??!!

Monday, September 9, 2013

धुधलका.......






 
पलकों का
उनींदापन
अब
थम जायेगा
शायद,

मिल ही जाएगा  
नब्ज दर नब्ज  की
हरारतों को
विराम भी !

छट ही जायेगा
वक़्त
बेवक्त की 
उम्मीदों  का धुधलका ,

छट  भी जायेगा
 सीने में अटका
वर्षों से पसरा
अनमना सा गुबार भी !

कम हो ही जाएगी
हथेलियों की 
रक्तिम तपिश ,
छू पाने की हसरत भी

विस्मृत नहीं कर पायेगी
अब 
तारों के टूटने की झलक !
देर तलक
टकटकी के लिए

डूब ही जायेगा
झूठी तसल्लियाँ
देने मैं माहिर
सूरज ,
हमेशा के लिए
देवदार  के 
पेड़ों के पीछे !

अब न भरमायेगा
क्षितिज का
वो सम्मोहन ,
मिलने न मिलने का
........
आज
मैंने तुम्हारा
आंखरी
ख़त  भी
जला जो दिया हैं
........
अब उस
दराज में
खाली लिफाफे सा
ठहरा हुआ हूँ
बिना
पता लिखा हुआ
मैं........
केवल मैं..!!