एक नज्म 'फ़राज़" साहब की जमीन पर ....
सुना हैं रंग तुझे, खुद-ब-खुद सजाते हैं !
और बेसाख्ता ही, तुझपे बिखर जाते हैं !!
सुना हैं शाम, गुजरती हैं तेरी जुल्फों से !
सितारे डूब कर, जाने से मुकर जाते हैं !!
सुना हैं फागुनी गीतों पे, तुम मचलते हो !
पाँव रुकते ही नहीं, धुन पे बिफर जाते हैं !!
सुना हैं की गीले रंगों से, तुम लरजते हो !
हम भी सूखे ही रहे, छोडो की घर जाते हैं !!
सुना हैं गजलें भी तुम पर, आह भरतीं हैं !
तुझ तक आ कर नगमें भी, ठहर जाते हैं !!
सुना हैं गालों पे उसके गुलाल रुकता नहीं !
नज़ारे ठहर के चुपचाप .....गुजर जाते हैं !!
सुना हैं रंग तो उनके भी, धुल गए कब के !
वो जो कहते थे मोहब्बत में निखर जाते हैं !!
सुना हैं छज्जों पे अब वो निकलते ही नहीं !
पिछली होली की किसी बात से डर जाते हैं !!
...हरीश भट्ट......