Friday, March 23, 2012

संबंधों कि परिभाषाएं


संबंधों कि परिभाषाएं कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !
मित्र तुम्हारी कामनाएं... फर्जी सी लगती हैं अब तो !!
बेमन कि ये प्रार्थनाएं,. .अब मुझको रास नहीं आती !
प्रिय तुम्हारा प्रेम पत्र भी, अर्जी सी लगती हैं अब तो !!
संबंधों कि परिभाषाएं, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !
रिश्तों में अपनत्व कहाँ अब, पहले सा अधिकार कहाँ !
तिनकों सा बिखरा बिखरा हैं, संबल और आधार कहाँ !!
दोमुहेपन कि ये बातें,... अंतस विचलित कर जाती हैं !
शत्रु ह्रदय भी विजय करे जो, अब ऐसा व्यवहार कहाँ !!
करुण दया का भाव भी, खुदगर्जी सी लगती हैं अब तो !
संबंधों कि परिभाषाएं, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
राग और विद्वेष की भाषा, प्रियवाचन पर प्रथ्मांकित हैं !
ह्रदय शूल से वेधित हैं और, चित्त भी भय से शंकित हैं !!
मित्र तुम्हारे बाहुपाश में,,, अपनापन अब निस्तेज हुआ !
कृतिघ्न्ताओं से भरी शिराएँ....धवल रक्त से रंजित हैं !!
कभी जो थी सहयोगितायें, मनमर्जी सी लगती हैं अब तो!
संबंधों कि परिभाषाएं, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
अविरल संबंधों कि पूँजी को, क्या पल भर मैं ठुकरा दोगे !
अतरंग क्षणों के प्रतिवेदन, क्या तत्क्षण ही बिखरा दोगे !!
पलभर का भी विचलन तुमको प्रिय कभी स्वीकार नथा !
अब कैसा ब्रजपात की मुझको, ह्रदय से ही बिसरा दोगे !!
साधारण नयनों की भाषा, अपवर्जी सी लगती हैं अब तो !
संबंधों कि परिभाषाएं,, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
......हरीश भट्ट....

Tuesday, March 20, 2012

आइनों का सच

 
खुद तो रोये थे मुझे भी, तो रुलाया तुमने ,
मुझको कल रात भी बेवक्त जगाया तुमने !

कोरे कागज पे न मजमून न पता था मेरा ,
कितनी शिद्दत से ये रिश्ता निभाया तुमने !

आइनों का सच तो यूँभी मुझे मंजूर न था  ,
टूट कर बिखरा हैं, जब भी दिखाया तुमने !

शाम रुक सी गई, मंजर वो  ठहर सा गया,

ऐसे मुस्का के जो पलकों को गिराया तुमने!


हाँ ये सच हैं कि मैं भी था तेरे तलबगारों मैं ,

जब्त करता ही रहा परदा ना  हटाया तुमने !


बेवफा था मैं खुदगर्ज भी  था नज़रों मैं तेरी ,

सिर्फ मुझसे न कहा दुनियां को बताया तुमने!!

Monday, March 19, 2012

एक मरता हुआ शहर


मेरा घर .....
बूढा हो चुका हैं
चुने सुर्खी की दीवारे
पनियाने लगी हैं...
उदास अकडू सा...
बैठ गया हैं
नीव का गीलापन
....
खड़ा हैं मुह बाये....
चूना चूना टपकती
दीवारों के साथ ........
और ये शहर ....
सारा शहर
धड़धडाता  सा
निकल गया हैं आगे को...
कंक्रीट छितरा दिया हो जैसे
गुल्ली डंडे के मैदान में.....
गुलमोहर के वो पेड़
अब नहीं हैं
उनकी जगह
होर्डिंग खड़े हैं..
कॉर्पोरेट दफ्तरों के.
सारा दिन
भांय भांय करती मोटरों का शोर
और आते जाते लोगों की
रेलमपेल ..
इक्का  दुक्का
पनियाले रंग के पंछी को छोड़
कोई नहीं फुदकता
घर आंगन में....
दूर पहाड़ों से आती
आवारा हवाए
आंचल बिंध के चलती हैं अब....
सिम्बल के वो उड़ते
पुछल्लेदार बीज
जाने कहाँ कहाँ तैरा करते थे ....
शाम को गंगा का
हरा हरा पानी
और उसपर तेरते उम्मीदों के दिए.....
लगता था जैसे
सतरंगी आसमान
समूचा तैर रहा हो सामने ही  .....
पांच  रुपये का
चने  की दाल का पत्ता 
और उबले मकई के दाने का स्वाद....
जाने कहाँ रह गया अब
कन्कव्वों से भरा रहने वाला आकाश
नग्न सा दीखता हैं
कोरा सा ..
दूर तक भुतहा हो जैसे...
और सड़कों पर
अनमने से चेहरे
एक दूसरे को घूरते...
लड़ने को बेताब ...
मुह फेर के कन्नी काटना
शगल हो जैसे  ....
सुबह और शाम
एक हाथ में बैत  
दूसरे में
परदेसी से 
दुग्गले कुत्ते की जंजीर थामे
सरसराते हुए लोग
भभकती सांसों को
हलक में धकियाते हुए
दूसरे मोहल्ले के
आँख मटक्के पे  खिसयाते हुए
एक दूसरे को
अपने कमर 
और ब्लड प्रेशर का नाप बताते हुए  .....
शहर की आवारा हवाओं
और राजनीती को कोसते हुए ...
बस...
इतनी सी मोहल्लेदारी
हाँ ....
एक  मरते हुए शहर को देखने का
शायद यही अंदाज हैं

Saturday, March 17, 2012

उस ख़त के कुछ पन्ने,..


बस यूं ही झिलमिल, आँखों से हँसता हूँ!
उस ख़त के कुछ पन्ने, जब भी पढता हूँ.!!...

बोझिल से दिन, तन्हां रातों को लिखती थी !
बचकानी सी कुछ बातें जो, तुम लिखती थी !!
सपनीले ख्वाबों  कि बातें, लिखती थी तुम !
जागी आँखों के सपने भी, तुम लिखती थी !!
अब तक इन आँखों में, उनको ही घढ़ता हूँ !
उस ख़त के कुछ पन्ने, जब भी पढता हूँ...!!.

अपना नाम कहीं कहीं पर, कम लिखती थी !
मेरा  नाम बढ़ा सा लेकिन, तुम लिखती थी !!
कविताये और नज्में भी,, लिखती थी तुम !
गालीब, मीर, मजाज भी, तुम लिखती थी !!
कैसे थे सपनीले दिन, अब सोचा करता हूँ !
उस ख़त के कुछ पन्ने,.. जब भी पढता हूँ...!!.

चिड़ियों कि बाते चटकीली, तुम लिखती थी !
तितली कि इतराहट पर भी तुम लिखती थी !!
बीते कल कि सब बातें भी,लिखती थी तुम !
आज नहीं आओगी  ये भी, तुम लिखती थी !!
याद न जाने तुम्हे आज भी.. क्यों करता हूँ !
उस ख़त के कुछ पन्ने,.. जब भी पढता हूँ...!!.

कब रूठे कब मान गए, ये भी लिखती थी !
पल पल के झगड़ों को भी, तुम लिखती थी !!
कल क्या पहनू ये लिख के, पूछा करती थी !
मैंने क्या पहना था ये भी, तुम लिखती थी !!
मन का खाली सूनापन, अब यूंही भरता हूँ !
उस ख़त के कुछ पन्ने,.. जब भी पढता हूँ. !!

जीने और मरने कि कसमे, तुम लिखती थी !
राधा कि भी प्रीत कि रस्मे, तुम लिखती थी !!
शायद हम ना मिल  पाएंगे, लिखती थी तुम !
शीरी और फरहद के किस्से, तुम लिखती थी !!
अन्धियाले सन्नाटों से मैं ..अब भी डरता हूँ !
उस ख़त के कुछ पन्ने,.... जब भी पढता हूँ. !!

Tuesday, March 13, 2012

ठिठोली

अच्छा...
एक बात पूछूं
सप्नीला वसंत
कोंपलों  से
झाकते झाकते
बौरा सा क्यों गया..?
सर्द हवा ने
कोई ठिठोली की हैं क्या ??
ओह...
तो यूं कहो न..
की पिछले वसंत
कोई था जो
धानी चूनर लिए
हवाओं का रुख
तय करता था !!
तितिरियों के

पाखों में

सुरमई रंग घोलता था !!

भवरे के सप्तसुरों  को

गुंजित करता था !!

अमराई के बौरों में

चटकीला स्वाद भरता था!

क्यों....????

था न कोई.....!!!???