Tuesday, June 28, 2011

इस देश की रानी 'सोनपरी',


अब कौन सुने सच की सरगम,कहना ही तो दरकार हो गया
इस देश की रानी 'सोनपरी', 'मन मोहन' भ्रष्टाचार हो गया

दफ्तर क्या दफ्तरवासी,,, क्या अफ्सर और क्या चपरासी
मंत्री से ले कर संतरी तक,, सब सौ की पत्ती के अभिलाषी
हर फाइल पे रखना हैं वजन, दफ्तर का शिष्टाचार हो गया
इस देश की रानी 'सोनपरी', 'मन मोहन' भ्रष्टाचार हो गया

अस्मत लुटती यहाँ थानों में, सौ पेंच हैं रपट लिखवाने मैं
दो बैल बिके एक खेत बिका,, मुजरिम साबित करवाने मैं
देश के सिपहसलारों से ही, संविधान का बलात्कार हो गया
इस देश की रानी 'सोनपरी', 'मन मोहन' भ्रष्टाचार हो गया

हाँ अब लोकपाल कि जय होगी, उसकी भी कीमत तय होगी
कुछ नए खाते खुल जायेंगे, जब देश-लक्ष्मी स्विसमय होगी
काला धन - काली करतूते ,,,उजले चेहरों का श्रृंगार हो गया
इस देश की रानी 'सोनपरी', 'मन मोहन' भ्रष्टाचार हो गया

Sunday, June 26, 2011

तुमसे तो बदतर नहीं हूँ


सहमा हूँ, कातर नहीं हूँ !
आसुओं से, तर नहीं हूँ !!

ठोकरों में, क्यों रहूँ मैं !
राह का, प्रस्तर नहीं हूँ !!

रोज रटते हो, मुझे क्यों !
प्रश्न का, उत्तर नहीं हूँ !!

खुद लहूँ में,, गर्त हैं जो !
दोगला, अस्तर नहीं हूँ !!

चीर दे जो,,, पृष्ठ पीछे !
छद्म वो,, नश्तर नहीं हूँ !!

मर गया हैं, तुममे इमां !
तुमसे तो, बदतर नहीं हूँ !!

Friday, June 24, 2011

वो गज़ल मेरी तो थी पर ,,काफिया मेरा न था


किस कदर थी भीड़ लेकिन काफिला मेरा न था
वो गज़ल मेरी तो थी पर ,,काफिया मेरा न था

आपने भी सच कहूं तो,,आज ही ये तामील की
वक्त-ए-रुखसत साथ था जो बारहा मेरा न था

बज्म मैं वो कुछ कहें और ओर कुछ तन्हाई में
एक मुह और दो जबां का, फलसफा मेरा न था

तुम ही कहो कैसे में रहता चैन से उस बस्ती में
तुम पढ़ गए थे कब्र पर जो, फातिहा मेरा न था

मैं तो इन्सां भी न था, पर तुम  खुदा बनते गए
चाहत भले ही हो मगर ,,ये मशवरा मेरा न था

तुमने भी बस पढ़ के, मुजरिम मुझे  ठहरा दिया
सच कहूं उस तफसील पर वो, तब्सरा मेरा न था

कुछ अजब से  रंग देखे जिस्त के अब क्या कहें
हाँ..जमीं तक तो थी मेरी,पर आसमां मेरा न था

Sunday, June 19, 2011

जब ओढ़ लिया इंकार स्वयं में


तुम तो पल में, संक्षिप्त हो गए !
फिर मैं कैसे, विस्तृत हो जाता !!
जब ओढ़ लिया, इंकार स्वयं में !
फिर में कैसे, स्वीकृत हो जाता !!

मैं भोर की, अरुणाई सा हरपल !
भाल तिलक को, तत्पर था बस !!
छू उड़ा सकूं,, कुंतल ललाट पर !
पवन सदृश्य ही, प्रेरित था बस !!
तुम परधि,, लाँघ ना पाई स्वयं !
फिर मैं कैसे, समवृत हो जाता !!
जब ओढ़ लिया, इंकार स्वयं में !
फिर में कैसे, स्वीकृत हो जाता !!

कुछ भान मुझे,, अस्पष्ट सा हैं !
तुम आत्मसात सी,, थी मुझसे !!
हर कथ्य मेरा,, अंगीकृत ही था !
तुम पारिजात सी... थी मुझमे !!
पर प्यास ह्रदय की, दीर्घ न थी !
फिर मैं कैसे, अमृत हो जाता !!
जब ओढ़ लिया, इंकार स्वयं में !
फिर में कैसे, स्वीकृत हो जाता !!

मैं स्नेह सृजन का,, याचक था !
और प्रणय विरह का, संवाहक !!
मैं दिया सरीखा, मन मंदिर का !
और वेद वाक्य का,, अनुवाहक !!
तुम मौन निवेदन.... क्रमशः में !
फिर मैं कैसे,, झंकृत हो जाता !!
जब ओढ़ लिया, इंकार स्वयं में !
फिर में कैसे, स्वीकृत हो जाता !!

Saturday, June 18, 2011

सलवटे... चेहरे की


सलवटे... चेहरे की दिखाते हैं ज़माने वाले
क्या क्या... इल्जाम लगते हैं ज़माने वाले

शुमार तुम भी थे गैरों की अदावत में कहीं
कल से खुश खुश सा बताते हैं ज़माने वाले

कितनी तरकीबें लड़ाई थी, तेरी आमद को
रंजिशन बारिश भी, कराते हैं ज़माने वाले

आशिकों यूं  भी कभी.. बाज़ दफा होता हैं
इधर की उधर.. भी लगाते हैं ज़माने वाले

सोचने में तो कोई हर्ज नहीं.... क्या कीजे
बात.. बेबात भी बढ़ाते हैं .....ज़माने वाले

तू मुझसे दूर रहे.....बदगुमां रहने को तेरे 
नाज-ओ-अंदाज उठाते हैं.... ज़माने वाले

जो था मोहसिन. उसी पे क़त्ल का शुबहा
तो  रिश्ते ऐसे भी निभाते हैं. ज़माने वाले